उघटा पुराण

उघटा पुराण..
----------

"मेरी दादी को पूर्वांचल की बोली में (भोजपुरी इत्यादि)  अजीब-अजीब "उधारण" देने की आदत थी (जो मेरी माँ को अभी भी है)... जैसे बहुत-दूरी नापने के लिए उनके पास लाइट-ईयर से बड़ा पैमाना था "पम्मापुर" (पाम्पेय सरोवर जहाँ सुग्रीव रहते थे)... फिर "पिण्डदान" (समाप्ती) और "पिण्ड छुड़ाना" (मुक्ति का प्रयास) या  "बवंडरी" (मतलब उत्त्पाती बच्चा / मैं) और भी बहुत से "एक्सएम्पल्स".. परन्तु एक उधारण बड़ा "जटिल" था एकदम "पाइथागोरस के प्रमेय" सा (मेरे लिए गणित उतनी ही मुश्किल है जितनी "खली के लिए जिम्नास्टिक") और उधारण-विशेष था -- "उघटा पुराण"-- वास्तव में इसका वास्तविक अर्थ आज तक "दुर्भेद्य" है... किन्तु कुछ कुछ इसका अर्थ आज समझ मे आया...!

आज जब मैं "हिंदी कविता" एक साहित्यिक मंच पर उसके संचालकों के आग्रह पर "भारतीय-दर्शन एक दृष्टि" नामक लघु-शृंखला में अपना तीसरा वक्तव्य दे रहा था... पिछली दो-कड़ियों में "सनातन धर्म" की व्यापकता को अंगुल-अंगुल नापने की चेष्टा में निकल चुकी थीं... और आज "वेद-समुद्र" में गोता मारना पड़ा... उफ़्फ़! वेद जिसकी महिमा अखिल ब्रह्मांड में व्याप्त है... उसे एक पिण्ड द्वारा अभिव्यक्त करना उस पिण्ड के उल्का पिण्ड बन जाने के अभियान से कम नही होता... और जब उल्कापिण्ड गिरते हैं तो कइयों का "पिण्ड दान" हो जाता है... तो कई पिण्ड छुड़ाने की जुगत में लग जाते हैं (क्यों कि वेद दर्पण हैं और हम सब नग्न)... तो इस प्रकार मैं एक जीवपिण्ड ब्राह्मी-वेद को बखान करने जैसे ही बैठा कि अनेक कूपमण्डूक टर्रा उठे... ये सब कूपमण्डूक "प्रगतिशील-कुँए" के गहन अंधकार में पिछली एक-आधी सदी से निर्भय-निवास कर रहे हैं... और अपने अंधेरे-संसार को "वैश्विक-अंधकार" बता कर निरंतर "सियापा पीट" (विधवा विलाप) रहे हैं... इनके सारी टर्राहट प्रायः इस गहन-कूप के चिकने-पत्थरो से टकरा कर "गुर्राहट का भान" पैदा करती है... और इस मे मदमस्त यह मूर्ख-मेढ़क-मेंढकी अपने शौर्य का "कैटुम्बिक गान" करते हुए जीवन यापन करते रहते हैं... इनका प्रबलतम लाभ यूँ भी है कि प्रकाश में रहने वाले कई "आन्हर-प्रकृति" और "तम-रसिक" आदमपुत्र यदा-कदा इनके अंधे-कुओं में झाँक कर इनका "तमस-गान" सुनते हैं और पुरस्कार स्वरूप "चारे की भीख" डाल कर ... आगे बढ़ जाते हैं (दशवेदानिया कहते हुए)... और इस प्रकार विगत एक सदी से यह "प्रगतिशील कूप" अपने "संघीय दम्भ" के साथ निरंतर अपने कुटुंब की वृद्धि कर रहा है... अचरज यह भी है कि यदि किसी सौभाग्य-दुर्भाग्यवश इनमें से को "मण्डूक" प्रकाशित विश्व मे आ भी जाए तो वह वहाँ भी उसी "स्मृतिशेष-तमस" का गान करता "टर्राता" फिरता है... या कोई नाली-गड्ढा देख कर उसमे जा बसता है... नए कूप का स्वप्न संजोए... ऐसा ही एक कूप है "हिन्दी साहित्य"... नहीं नहीं यह मंच नहीं बल्की आधी-सदी में "डेवलप" हुआ हिंदी साहित्य... जिसमें 'जीवन की वार्ता तो होती है किन्तु जीवन्तता पूर्णतः निषेध है'... और 'वेद तो जीवन है'... बस यही त्रुटि हो गई इस निरीह-मंच से... यह मंच भूल चुका था कि यह भले ही "धूपिया-प्रकाश"(लाइम लाइट) में निर्मीत और व्यवस्थित हुआ है किन्तु इस पर भीड़ तो "अंधकार-रसिक" कूपमण्डूकों की है... जो एक दूसरे की जुबान पर लगे किचड़ को "स्वाद" और आँखों के सामने की अंधियारे को "रहस्य" कहते "बड़े" होते हैं... अब इनको "सत्य शिव सुन्दर" का उद्घोष किसी श्राप से कम तो न लगेगा... पर 'मासूम-मनीषी' यह कहाँ जान सकता है... उसे तो लगा कि जो समूह निरंतर "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" का 'चीत्कार' करती फुदकती है...  वह वास्तव में 'स्वातंत्र्य-प्रेमी' है... धत! वस्तुतः प्रगतिशील समाज जब भी "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" की आवाज़ उठता है तो उसमे 'केवल हमारी' "साइलेंट" रहता है... और यह बहुत आवश्यक भी है क्यों कि यदि सबकी अभिव्यक्ति स्वतंत्र हो गई तो यह विश्व "विविधरंगी" हो उठेगा... क्षितिज पर सात रंगों की खिलावट होगी... इंद्र धनुष प्रकट हो जाएगा... ओह नो! "इंद्र" तो "हिंदुत्व" का प्रतीक है... यदि उसके धनुष को हमने अभिव्यक्त होने दिया तो इस प्रकार हम इस क्षितिज से उस क्षितिज तक "हिंदुत्व" का विस्तार देख लेंगे... और यह हमारे "तामसिक-युग" की पराजय होगी... अतः ज़ोर लगा के हाईसा... !

और ज़ोर लग गया... पिछले "एपिसोड" में आए कोई "बोधिसत्व"... आहा! क्या नाम है.. लगा तथागत का अवतरण हुआ है... अभी मैंने भारतीय धर्म की उदारता में "वशिष्ठ से वात्स्यायन" का जोड़ लगाया ही था... की बोधिसत्व को बोध हुआ यह तो "ब्राह्मण वाद" का वितण्डा तो नहीं ... तो उन्होंने तत्काल "कामसूत्र के उद्देश्य" कर प्रश्न खड़ा कर दिया... जो बौद्धिक-संवाद के निमयों के विरुद्ध है क्यों कि विषय तब तक सनातन-धर्म था न ही "काम" या "वात्सयायन"... (क्यों कि विषयांतर नही कर सकते आप).. ख़ैर वह तो छोटी बात थी, कि तभी  एक "मोमिम भाई" ने भारतीय-दर्शन में ईश्वर के स्वरूप पर उत्सुकता दिखाई... उनकी उत्सुकता में मेरी उत्सुकता बढ़ती इससे पूर्व उन्होंने यह भी "स्पष्ट कर दिया" कि "जद्दु कृष्ण" ईश्वर को क्या समझते थे... मैं  यह समझ नही पाया कि वह उत्सुक थे या "भावुक"... किन्तु चूँकि उस दिन मेरा विषय ईश्वर नहीं "धर्म का स्वरूप" था अतः मैंने क्षमा ले ली... किन्तु महोदय! आज तो सीमा ही भंग हो गई "मण्डूक समाज" की... आज की वार्ता तो "वेद" के स्वरूप पर आधारित थी... बड़े संकोच से मैं इसमें उतर ही रहा था कि "गुर्राते हुए" महान बुद्धिधारी, असहिष्णुता के धुर विरोधी, समता के संरक्षक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रहरी "मंगलेश डबराल साहब" कूद पड़े की "हिंदी साहित्य के मंच पर धर्म की व्याख्या! ( हाय हाय! यह तो बड़ा पाप है... यदि ऐसा हुआ तो उस "कृत्रिम-साहित्य" का क्या होगा जो अपने "यथार्थवादी" होने का दम्भ भर रहा है)... उन्हें वेद-बचकाने लगे... अथवा मंच का कदम बचकाना लगा यह नही स्पष्ट (क्यों मैं तो बच्चा था ही)... पर उन्होंने "क्या बचकाना है" लिख कर अपनी "पिरी" की घोषणा की... पर हर "पीर" मुर्शिद नहीं होता प्रायः पीर पीड़ा भर रह जाते हैं समाज में... अभी यह "विशाल मण्डूक" टर्रा ही रहा था कि एक "टैडपोल" मुखर हो उठा - "पढ़ने से प्रज्ञा का प्रस्फुटन होता तो बुद्ध को भटकने की आवश्यकता क्या थी?"(जबकि ऐसा कहते हुए उसमे प्रज्ञा का प्रस्फुटन हुआ था या ईर्ष्या या चापलूसी का यह बताना अभी कठिन है) अब उससे कोई कहे यदि ऐसा नही होता तो पढ़ने और पढ़ाने की यह साहित्यिक रेलम-पेल किस अश्वमेध यज्ञ की आहुति में होती है..? ऐसा लगता है  कदाचित यह "तमस-साधक-दृष्टियां" वैदिक-प्रकाश की हल्की सी चमक  में "चुंधिया"  गईं... अथवा बौद्धिक-साहित्य के अंधकूप में "धर्म-किरण" की सेंधमारी 'कूप मण्डूकों' को "नाकाबिले-बर्दाश्त" साबित हुई तथा सहिष्णुता प्रेमी "डबराल एंड पार्टी" लग गई "असहिष्णु-कोलाहल" पैदा कर के धर्म-स्वर मांद करने में... मैं मन ही मन हँसने लगा वाह रे विधाता! तू हमेशा कृपालु क्यों है... आज जब इन मण्डूकों की "टर्र-टर्र फिर गुंजी" (ऐसी बहुत अपने जेएनयू व्याख्यानों और फेसबुक पा सुन चुका हूं मैं).... तो मेरी दादी के उस रहस्यमय-उधारण(कटाक्ष) का अर्थ कुछ कुछ समझ आया-- "की जब कोई तर्क शेष न हो तो "टर्राओ"(कुतर्क और शोर) और बात को कहीं से कहीं ले कर जाओ... फिर अंत मे अपनी "निरीहता और शुचिता का विधवा विलाप" करो... यही सब कांड वास्तव में 'उघटा पुराण' कहलाता है... जो किसी भी सत्य को अंधकार के रसातल में लिए जाता है..!

मुझे नहीं पता अब वह "प्रयोगधर्मी मंच" मुझे दुबारा प्राप्त करता है या नहीं... किन्तु मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि वह इस "तेजस्वी प्रयोग" की शक्ति "हिन्दी कविता" के संचालको को सर्वदा देता रहे... और मनोरंजन करते प्रगतिशील-मेंढक भी यूँ ही टर्राते रहें..!

सप्रेम--

ओमा The अक्
२९-मई-२०२०

(हिंदी कविता के पेज पर मज़ेदार अनुभवों का स्मृतिपत्र)😊

Popular posts from this blog

बुद्ध वेदान्त से अलग नहीं- स्वामी ओमा द अक्

एकला चलो रे... (बुद्ध और सिकंदर) - ओमा द अक्

"Womanhood turned hex for Marilyn Monroe in consumerist era – Swami OMA The AKK"