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कविता-आलोक

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कविता-आलोक ------------ "गँवई मिट्टी का खिलौना... जब कभी क़स्बों के हाट-बाज़ार तक पहुँचता है... तब उसे पहली बार यह पता लगता है कि 'वो बिक भी सकता है'... वास्तव में! कविता बड़ी व्यक्तिगत होती है... इसलिये बड़ी छिपा के रखी जाती है... यही कारण है कि ग्राम्य-संस्कृति में जन्मी ऋचाओं को सहस्राब्दियों छिपाए रखा गया किसी भी "हाट-बाजार" से... बस किसी किसी 'द्विज' के कानों में कोई पुरनिया कह देता था.. ताकि  मिट्टी पर उगा आकाश सुरक्षित रह सके... हाँ! हर वास्तविक कविता मिट्टी पर उगा आकाश है... जैसे उगता है आकाश मिट्टी से अंकुरित हो कर अन्न के रूप में... अन्न वो कविताएं हैं जिसे किसान लिखते हैं... और भरते हैं उन विचारकों-कवियों के पेट जो अपनी रचनाएं करते हुए कभी भी याद नही करते कि उनके काग़ज़ पर जो विचार या काव्य उग रहे हैं वास्तव में उनकी जड़ें उनके पेट में हैं... इस प्रकार प्रत्येक कविता किसी न किसी खेत... किसी न किसी गाँव की कृतज्ञ होती है... परन्तु नही होता है हर कवि कृतज्ञ अपने पेट मे पड़े अन्न के रचनाकार किसान का... उपजाऊ खेत का... हाट-बाज़ार के पीछे छूट गए अधपके गाँव क...

उघटा पुराण

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उघटा पुराण.. ---------- "मेरी दादी को पूर्वांचल की बोली में (भोजपुरी इत्यादि)  अजीब-अजीब "उधारण" देने की आदत थी (जो मेरी माँ को अभी भी है)... जैसे बहुत-दूरी नापने के लिए उनके पास लाइट-ईयर से बड़ा पैमाना था "पम्मापुर" (पाम्पेय सरोवर जहाँ सुग्रीव रहते थे)... फिर "पिण्डदान" (समाप्ती) और "पिण्ड छुड़ाना" (मुक्ति का प्रयास) या  "बवंडरी" (मतलब उत्त्पाती बच्चा / मैं) और भी बहुत से "एक्सएम्पल्स".. परन्तु एक उधारण बड़ा "जटिल" था एकदम "पाइथागोरस के प्रमेय" सा (मेरे लिए गणित उतनी ही मुश्किल है जितनी "खली के लिए जिम्नास्टिक") और उधारण-विशेष था -- "उघटा पुराण"-- वास्तव में इसका वास्तविक अर्थ आज तक "दुर्भेद्य" है... किन्तु कुछ कुछ इसका अर्थ आज समझ मे आया...! आज जब मैं "हिंदी कविता" एक साहित्यिक मंच पर उसके संचालकों के आग्रह पर "भारतीय-दर्शन एक दृष्टि" नामक लघु-शृंखला में अपना तीसरा वक्तव्य दे रहा था... पिछली दो-कड़ियों में "सनातन धर्म" की व्यापकता को...