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Showing posts from 2020

और कुमार सम्भव अधूरा ही रह गया...

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"और कुमार सम्भव अधूरा ही रह गया...  कालिदास एक अद्भुत कवि थे...वाल्मीकि के पश्चात संस्कृत के सबसे   सुन्दर रचनाकार तथा विश्व के महानतम-साहित्यकार... किसी भी "रूमी"..."फिरदौसी"..."शेक्सपियर" और "किट्स" से बड़े क्षितिज को निहारने वाले...कभी "मेघदूत" के अनूठे प्रेमपत्रों में लीन...कभी "अभिज्ञान शाकुन्तलम" में वासना और वेदना को उकेरने में तल्लीन...कभी "रघुवंश" की महागाथा में राष्ट्रहित और धर्म की टोह लेते हुए कालिदास ने जब भी लेखनी थामी तो साक्षात वाग्देवी भारती के निष्कलंक-राजहंस बन गए...और व्योम की अतल गहराइयों से शब्दों के ऐसे गजमुक्त चुन-चुन लाए जो अक्षर-अमर हो गए...किन्तु इस बार वो चूक गए...कृतिका-नक्षत्र के तारा-समूह में किसी पालने का आभास होता है...डोरी से बंधा..नन्हा सा पालना...अन्नत-आकाश में झूलते इस पालने में...किसी अमावस्या की अर्धरात्रि को कालिदास भगवान् कार्तिकेय का दर्शन करते हैं...और लेखनी थाम उनके स्वरूप के वर्णन में जुट जाते हैं...मयूरासन पर विराजे...शिव के समाधि-भंग के फलस्वरूप प्रकटे स्

कविता-आलोक

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कविता-आलोक ------------ "गँवई मिट्टी का खिलौना... जब कभी क़स्बों के हाट-बाज़ार तक पहुँचता है... तब उसे पहली बार यह पता लगता है कि 'वो बिक भी सकता है'... वास्तव में! कविता बड़ी व्यक्तिगत होती है... इसलिये बड़ी छिपा के रखी जाती है... यही कारण है कि ग्राम्य-संस्कृति में जन्मी ऋचाओं को सहस्राब्दियों छिपाए रखा गया किसी भी "हाट-बाजार" से... बस किसी किसी 'द्विज' के कानों में कोई पुरनिया कह देता था.. ताकि  मिट्टी पर उगा आकाश सुरक्षित रह सके... हाँ! हर वास्तविक कविता मिट्टी पर उगा आकाश है... जैसे उगता है आकाश मिट्टी से अंकुरित हो कर अन्न के रूप में... अन्न वो कविताएं हैं जिसे किसान लिखते हैं... और भरते हैं उन विचारकों-कवियों के पेट जो अपनी रचनाएं करते हुए कभी भी याद नही करते कि उनके काग़ज़ पर जो विचार या काव्य उग रहे हैं वास्तव में उनकी जड़ें उनके पेट में हैं... इस प्रकार प्रत्येक कविता किसी न किसी खेत... किसी न किसी गाँव की कृतज्ञ होती है... परन्तु नही होता है हर कवि कृतज्ञ अपने पेट मे पड़े अन्न के रचनाकार किसान का... उपजाऊ खेत का... हाट-बाज़ार के पीछे छूट गए अधपके गाँव क

विविधभारती...

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"ये आकाशवाणी है ! ..और आप सुन रहे हैं--- "विविध भारती"..!" ... जी हाँ ! कुछ ऐसे ही तो खुलती थी मेरी आँखें मेरे बचपन की सुबह.. एक शहनाई की गूँज... एक वन्देमातरम..कुछ मर्मस्पर्शिय भजन.. और फिर "भूले बिसरे गीत" ..जो वास्तव में कभी भुलाए नहीं जाते.. वो मधुर और स्पष्ट भाषा में उद्घोषणा करते उद्घोषक न जाने कब मेरी भाषा बन गए पता ही नहीं लगा... हर शब्द की अपनी ही शक्ति और मूल्य होता है यह मैंने उन्ही उद्घोषकों से जाना...सच पूछो तो मेरी "हिन्दी कि कक्षा थी विविध भारती" । स्कूल से लौट कर जब दोपहर में मैं घर आता..मेरी "अम्मा" तेज़ आवाज़ में "विविध भारती" सुन रही होतीं.."कार्यक्रम का अगला गीत लता मंगेशकर की आवाज़ में...गीतकार हैं शैलेंद्र और संगीतकार शंकर-जयकिशन..फिल्म का नाम है "अवारा" ..." जी हाँ ! कुछ ऐसे ही मैंने भारतीय फिल्म संगीत से अपना रिश्ता बनाया और इसकी समझ बढ़ाई... विविध भारती केवल गीत नहीं गीत का इतिहास भी सुनाता रहा है...और उसके चरित्र की व्याख्या भी करता कभी कभी "छाया गीत" में... कितना

मर्लिन मुनरो

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"जिम डोरती" कार चलाते हुए बहुत खुश था...मुस्कुराती हुई उसकी बीवी ने उसे लिपट कर चूम लिया...और बोली --" मैं बहुत खुश हूँ जिम! तुम मेरे साथ हो हम अब हम लोग "लॉस एन्जेल्स" में घर लेंगे और"...तभी जिम बोल पड़ा-- "मैं बहुत खुश हूं आज "ट्वेंटीएथ सेंचुरी फॉक्स" ने तुम्हे दर्जन भर फिल्मों के लिए एक साथ साइन किया है...ये कमाल है!"...यह सुन कर उस सुन्दरी का चेहरा उतर गया... जिम बोलता जा रहा था---" उफ! जानेमन! तुमने जादू कर दिया...पैसा ही पैसा होगा...लोग पागल हो जाएंगे ये खबर देख कर की "मिसेज डोरती" को फॉक्स ने ऐतिहासिक-अवसर दिया है...सारी इंड्रस्ट्री तुम पर फिदा होगी...अरे! तुम उदास क्यों हो मेरी जान! तुम अपने सपने के नज़दीक हो...तुम दुनिया की सबसे बड़ी अदाकारा बनने वाली हो...ये तूम्हारी प्रतिभा का मूल्यांकन है!"...बस ये सुन कर जिम की अभिनेत्री बीवी को न जाने क्या बुरा लगा कि उसने चीख कर कहा---" भाड़ में गई प्रतिभा!..तुम इतने भी बेवकूफ़ तो नही लगते की तुम्हे ये भी म पता हो कि हॉलीवुड प्रतिभा नही जिस्म खरीदता है एक औरत का...और म

अहिल्याबाई होलकर

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अहिल्याबाई होलकर "रात्रि का अंतिम प्रहर समाप्त होने को था...मन्दिर का किवाड़ खोल कर भीतर गए पंडितों ने देखा कि शिव-लिंग ने अपना स्थान स्वयम ही परिवर्तित कर लिया है..."हर हर महादेव"....जय काशी विश्वनाथ शम्भू... जय देवी अहिल्याबाई होलकर की...! काशी का प्रभाती-व्योम इन नारों से गुंज रहा था...शताब्दी के पश्चात काशी को भोलेनाथ और हिन्दू-समुदाय को उनका केंद्रीय-मन्दिर पुनः प्राप्त हो चुका था... हिन्दू समुदाय अंदर तक जाग उठा था भगवान् के इस चमत्कार से...इस्लाम और ईसाइयत के प्रचार में न दिखने वाले अल्लाह की व्यख्याएँ इस चमत्कार के आगे धुंधली पड़ चुकी थीं...ऊदास हो चुके धर्म को सूर्य की तेजस्वी-किरण ने पुनः स्पर्श कर लिया था! मई की चिलचिलाती गर्मी में ३१ तारीख १७२५ के साल में "अहिल्या" का जन्म हुआ...वह जन्म से ही शिव भक्त थी...ऐसा प्रतीत होता था कि   वह रुद्राक्ष की कोई कली हो जिसने मानव देह धारण कर ली थी।...सनातन धर्म के सूत्र उसके रक्त में प्राण बन कर दौड़ने लगे थे...उसे कण कण में शंकर के दर्शन होते थे।..मात्र १२ वर्ष् की अवस्था मे उसका विवाह "खांडेराव होल्कर"

उघटा पुराण

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उघटा पुराण.. ---------- "मेरी दादी को पूर्वांचल की बोली में (भोजपुरी इत्यादि)  अजीब-अजीब "उधारण" देने की आदत थी (जो मेरी माँ को अभी भी है)... जैसे बहुत-दूरी नापने के लिए उनके पास लाइट-ईयर से बड़ा पैमाना था "पम्मापुर" (पाम्पेय सरोवर जहाँ सुग्रीव रहते थे)... फिर "पिण्डदान" (समाप्ती) और "पिण्ड छुड़ाना" (मुक्ति का प्रयास) या  "बवंडरी" (मतलब उत्त्पाती बच्चा / मैं) और भी बहुत से "एक्सएम्पल्स".. परन्तु एक उधारण बड़ा "जटिल" था एकदम "पाइथागोरस के प्रमेय" सा (मेरे लिए गणित उतनी ही मुश्किल है जितनी "खली के लिए जिम्नास्टिक") और उधारण-विशेष था -- "उघटा पुराण"-- वास्तव में इसका वास्तविक अर्थ आज तक "दुर्भेद्य" है... किन्तु कुछ कुछ इसका अर्थ आज समझ मे आया...! आज जब मैं "हिंदी कविता" एक साहित्यिक मंच पर उसके संचालकों के आग्रह पर "भारतीय-दर्शन एक दृष्टि" नामक लघु-शृंखला में अपना तीसरा वक्तव्य दे रहा था... पिछली दो-कड़ियों में "सनातन धर्म" की व्यापकता को

मजहब

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मज़हब..... ------------ आज बहुत गर्मी थी...तापमान पिछले दस सालों में सबसे अधिक था इन दिनों बनारस में.. कोई 46℃...मग़र फिर भी मुस्लिम समुदाय बड़ी मस्ती से रोज़ा और इफ़्तार में लगा है पिछले पच्चीस दिनों से...आज शबेक़दर का रोज़ा था...मेरे दत्तक पुत्र साक़िब भारत ने मुझे सुबह 3 बजे कहा -" सहरी कर लीजिए..आज रोज़ा रखना है न आपको!"...मैंने कहा --" हाँ! पर कुछ खाएंगे नहीं हम...बस पानी पी कर सो जाते हैं!"...और मैंने दो-चार घूँट पानी पिया और रोज़े का संकल्प करते हुए हर बार की तरह कहा --" भगवान् जी! यदि आप चाहेंगे तो हम रोज़ा लेंगे..नहीं तो आप की मर्ज़ी मेरी मर्ज़ी!".... और देखिये उसने चाहा और मैं 16 घण्टे की भूख-प्यास के बाद भी तरो-ताज़ा रह गया दावते-इफ़्तार के लिए जो साक़िब भारत के घर पर थी... मुझे घर से लेने के लिए मेरे हबीब मरहूम सुलेमान आसिफ़ साहब का होनहार नाती और मेरा मित्र अफ़सर आया... उसकी गाड़ी पर बैठने के बाद मैंने उसे कहा--" आज मुझे पानी शब्द जितना सुन्दर लग रहा है कभी नही लगा...और आज मुझे पानी का एक कतरा भी बर्बाद होता बुरा लग रहा है... विज्ञान में रंग हीन

एकला चलो रे... (बुद्ध और सिकंदर) - ओमा द अक्

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एकला चलो रे... (बुद्ध और सिकंदर ) ------------- "उत्तर दिशा के क्षितिज पर गोधूलि की रक्तिम आभा शनै-शनै धूमिल हो रही थी... काले- सँवलाये-आकाश में अटल-ध्रुव प्रकट होने को था... उस अटल-यथार्थ का उद्घोष करने... जो संसार मे आने वाले प्रत्येक जीव के समक्ष एक न एक दिन आता है-- "मरण"-- सम्प्रति! इसी अटल-ध्रुव से शीश-जोड़े तथागत लेटे हुए थे... सांसारिक-लोगों के लिए यूँ लेटना अशुभ है पर सन्यासी को तो यूँही मंगल-बोध होता है... निकट में मुड़-मुंडाए-भिक्खुओं का समूह निःशब्द देख रहा था... उस गौतम के परिनिर्वाण को जो संसार के विज्ञान का महानतम-उद्घोषक है... उस बुद्ध को जिसके पदचिह्न दुःख से मुक्ति की ओर लिए जाते हैं... आज वह स्वयम जा रहा है... किन्तु कैसा शांत और संयमित.. मानो कोई मनचाही यात्रा पर निकल रहा हो... अहोभाग्य! क्या मृत्यु इतनी सरल और सुंदर भी होती है...? यूनान की एक छोटी सी सल्तनत "मकदूनिया" में आज शाम बड़ी रंगीली थी... चाँद अपने पूरे शबाब पर था... जो अपनी चाँदनी के जाल फेंक कर आसमान के तमाम-सितारों को गुमशुदा किये जा रहा था... बस दूर एक सितारा उत