मजहब

मज़हब.....
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आज बहुत गर्मी थी...तापमान पिछले दस सालों में सबसे अधिक था इन दिनों बनारस में.. कोई 46℃...मग़र फिर भी मुस्लिम समुदाय बड़ी मस्ती से रोज़ा और इफ़्तार में लगा है पिछले पच्चीस दिनों से...आज शबेक़दर का रोज़ा था...मेरे दत्तक पुत्र साक़िब भारत ने मुझे सुबह 3 बजे कहा -" सहरी कर लीजिए..आज रोज़ा रखना है न आपको!"...मैंने कहा --" हाँ! पर कुछ खाएंगे नहीं हम...बस पानी पी कर सो जाते हैं!"...और मैंने दो-चार घूँट पानी पिया और रोज़े का संकल्प करते हुए हर बार की तरह कहा --" भगवान् जी! यदि आप चाहेंगे तो हम रोज़ा लेंगे..नहीं तो आप की मर्ज़ी मेरी मर्ज़ी!".... और देखिये उसने चाहा और मैं 16 घण्टे की भूख-प्यास के बाद भी तरो-ताज़ा रह गया दावते-इफ़्तार के लिए जो साक़िब भारत के घर पर थी... मुझे घर से लेने के लिए मेरे हबीब मरहूम सुलेमान आसिफ़ साहब का होनहार नाती और मेरा मित्र अफ़सर आया... उसकी गाड़ी पर बैठने के बाद मैंने उसे कहा--" आज मुझे पानी शब्द जितना सुन्दर लग रहा है कभी नही लगा...और आज मुझे पानी का एक कतरा भी बर्बाद होता बुरा लग रहा है... विज्ञान में रंग हीन, गंध हीन, स्वाद हीन कहे जाने वाले पानी का रंग, सौंधापन  और स्वाद क्या होता है... वो सिर्फ़ प्यासा ही जान सकता है... शायद ऐसी ही लज़्ज़त है इबादत की जो बस एक मोमिन का जी जानता है!

उस समय जब मैं लड़कपन में था... तब  मेरे पवित्र घर मे पहली बार "मलिच्छ-मुसलमानों" का आना जाना शुरू हुआ था... हाँ! हम पारम्परिक ब्राह्मण घरों में अंग्रेज कब शुद्ध हो गए और मुसलमान क्यों मालिच्छ रह गए जबकि दोनों शास्त्रों में "एक" हैं यह बड़ा राज़ है... बहरहाल हो गए तो हो गए... और मैं भी यही कहता था तब मेरी माँ (विद्यावती देवी) से कि "पापा को क्या ज़रूरत है इन गन्दे लोगों को घर लाने की जो माँस-बकरा खाते हैं और हमारे मंदिर तोड़ते हैं?".... मुझे याद नहीं की मेरी माँ ने कभी कोई जवाब शब्दों में दिया हो मुझे... बस उनके हाव-भाव मे निहित घृणा और "उन लोगों का बर्तन" मुझे सब समझा देता था... पर उसके उलट मेरे विशुद्ध पण्डित पिता (पं• हरिहर नाथ शास्त्री) द्वारा उनके साथ बैठ कर भोजन कर लेना और बहुत प्यार से वक़्त बिताना मुझे घोर अचरज भरे गुस्से में डालता... मैं शायद दुनिया के उन चुने हुए बच्चों में एक हूँगा जिन्हें "पारम्परिक कारणों से" अपने पिता को "पथ भ्रष्ट" कहने का अवसर मिला हो। 

अरशद भाई, सरफ़ू भाई, रुस्तम हाजी, हाजी सलाम, मोहम्मद भाई और कौन कौन दोस्त थे पापा के जो रोज़ सुबह शाम डेरा डाले बैठा करते थे... दूसरी तरफ़ मंज़ूर,इक़बाल और बहुत से मुस्लिम लड़के मेरे बड़े भाई (बमभोले) के दोस्त हुआ करते थे... वो भी उस दौर में जब हर तरफ "राम मंदिर" का शोर था... मैं "बाबा जी" के साथ बैठा अक्सर अखबारो में कार सेवा के किस्से सुनता था... दूरदर्शन पर  रामायण ख़त्म हो गई थी... महाभारत शुरू हो रही थी... बाबा जी बड़े नाराज़ थे इस बात से... नाश्ता करते हुए चौके में बैठे बैठे मेरी माँ से दोहराते रहते थे -- "देवता! तुम देखना बहुत बुरा होगा देश मे! महाभारत का पढ़ना सुनना सब अशुभ है! यहां तो घर घर दिखने लगी महाभारत!"... मैं उनकी इस दकियानूसी बात पे हँस देता था..पर मेरी माँ को उन पर भरोसा था...!

समय अपनी रफ़्तार से चलता रहा... महाभारत दूरदर्शन पर 1990 में ख़त्म हुआ...और ख़त्म हुए मेरे प्यारे बूढ़े दोस्त बाबा जी (पण्डित अंनत राम शुक्ला)...और ख़त्म होने लगी वो बैठकी मेरे घर मे मुसलमान मेहमानों की... माहौल दिन प्रतिदिन बिगड़ते जा रहे थे... गली सड़क पर हंगामे होने लगे थे... हिन्दू बहुत जोश में थे- "रामलला हम आएँगे/ मंदिर वहीं बनाएंगे!"... ये नारा घर घर गूँज रहा था... रात रात को छतों पर घण्टे-घड़ियाल गूँजते... शंख बजता... मशालें जलाई जातीं... क़सम से! बहुत जोशीला और इंकलाबी  आलम था उन दिनों एक बड़े होते बच्चे के लिए... और उस पर जब रात को यह सुनाई पड़ जाए कि मुसलमान "कोयला बाज़ार" से आगे बढ़ गए हैं तो लोग अपने घरों में गंडासा,तलवार,त्रिशूल,ख़ंजर, और "कट्टा" भो ढूढने लगते की कब न ज़रुरत पड़ जाए... हम भाई-बहनों ने भी ढेर सा पत्थर जमा कर रखा था पापी मुसलामानों के सर पर छत से बरसाने के लिए!...वाह क्या क्रांतिकारी अनुभव था... पर मेरे पिता को इन सब क्रांतियों में कोई रुचि नही थी... वो इसे बस राजनीति समझते थे... उनके लिए मंदिर से महत्वपूर्ण था राम चरित... वो उसे ही सर्वोपरि मानते थे... पर उनका "मानना" तो उनके बच्चों तक का "मानना" नही था फिर देश-दुनिया को बात ही छोड़ो...!

बनारस उन दिनों अक़्सर दंगे की चपेट में रहता था... हम लोग सुनते थे कि मदनपुरा और दालमंडी में बहुत से मुसलमान पाकिस्तानियों से मिले हैं... उनके घरों में हथियारों का ज़खीरा है... यहां तक कि दंगे के दौरान बस ज़िन्दा मुसलमान ही नहीं "जिन्नात" भी बलवा करने निकल पड़ते हैं... ज़रा सा हंगामा होते ही मधुमक्खी की तरह झुंड कर झुंड मुस्लिम टूट पड़ते हैं हिंदुओ पर... ऐसी वास्तविक-अवास्तविक सूचनाओं से दिन-रात हमारे मन का जाने-अनजाने पोषण किया जाता था... और तब मेरे मन मे "इस कौम" के लिए बेपनाह घृणा भर गई... मैं भारत को "हिन्दू राष्ट्र" बनाने के स्वप्न देखने लगा...  मैंने घर मे ही कई मस्जिदें बनाई और तोड़ डाली अपनी बहनों के साथ मिल कर... यह हिंसा थी या रेचन यह कह पाना तब मुश्किल था और शायद अब भी... पर यह हुआ और ऐसा करके मैंने इतिहास के सभी बादशाहों को दंडित किया... मैंने "हिंदुओं के लिए गीत" रचना शुरू किया... और स्वयम को ही सनद देने लगा... पर मुझे दंगे-फ़साद बिल्कुल नहीं पसंद थे या शायद बहुत डरावने लगते रहे... किसी की मौत मुझे बचपन से बहुत डराती है... मुझे याद है जब कभी मेरे घर की तरफ से कोई मुर्दा "राम नाम सत्य है" कहता गुज़रता तो मेरी बहने उसकी आवाज़ मुझ तक पहुंचने से पहले टेपरिकार्डर की आवाज़ तेज़ कर देती थीं (जो लगभग दिनभर हमारे घर मे बजता रहता था)... यदि कभी बहार कहीं मुर्दा दिख जाए तो पापा इधर-उधर बहका देते थे... और नाव से घूमते हुए तो कभी भी मणिकर्णिका घाट (श्मशान) की ओर से पापा नाव को न ले जाने देते थे... फिर भी कहीं कहीं यह डरावना आलम दिख ही जाता था और मैं घण्टों इस संसार की नश्वरता पर रोता रहता था... अतः मुझे कोई भी मारा जाए हिन्दू या मुसलमान सुन कर अच्छा नही लगता था... मैं मुस्लिम समुदाय से नफ़रत करता था पर उनके नाश की कामना नही करता था... मुझे लगता था बस उन्हें हमारे साथ नही रहना चाहिये क्यों कि वो हमसे नफ़रत करते हैं..!

वास्तव में घृणा से अधिक काल्पनिक कुछ भी नहीं है इस संसार मे... पर अफ़सोस हम मनुष्यों को कल्पनाओं को जीवित देखने बड़ी लालसा रहती है..!... 6 दिसम्बर 1992 वो एक मिट्टी का ढाँचा जिसका आकार मस्ज़िद का और आधार मंदिर का था एक बौराई भीड़ द्वारा गिरा दी गई... मैं और मेरे जैसे बहुत से हिन्दू बहुत ख़ुश हुए और शायद मेरे जैसे ही मुसलमान होंगे जो बहुत नाराज़ हुए... मेरे पिता इससे दुःखी हुए उन्हें यह तरीका पसन्द नही आया उनको अपने मित्रों के आगे  शर्मिंदा होना हो रहा हो शायद या शायद वो विशुद्ध-शिवभक्त हैं इस लिए "विविधता के सौंदर्य" को जानते हैं और तभी उन्हें वैविध्य को नष्ट करना बुरा लगा... या यह भी हो सकता है कि उन्हें मज्झम मार्ग से निकलने का अनुमान था इस विवाद में (जो आज तक है देश मे क़ानून के रास्ते).... जो भी हो घृणा का उन्माद उस समय सारे देश पर छाया था... लोग अभी मस्ज़िद गिरने का जश्न मनाते कि थी वो "काला शुक्रवार" आ गया जिसकी कालिख अबतक मुम्बई के चेहरे पर यहाँ-वहाँ नज़र आ जाती है... और नज़र आती है हर उस दामन पर जो वज़ू बनाए मस्ज़िद की तरफ़ जा रहा हो.... सच कितना भयावह होता है "एक पक्षीय मस्तिष्क" और उसके निर्णय... यहाँ पर मुझे मार्क्स के उन वाक्यों पर भरोसा करने को जी करता है कि "मज़हब एक खतरनाक अफ़ीम है!"

1992 में देश अपनी सबसे बद्तर-सामाजिक व्यवस्था से गुज़र रहा था... हर तरफ़ भय और हिंसा... वैसे इन दोनों शब्दों में वही सम्बंध है जो "दिया-बाती" में है... दोनों अन्योन्याश्रित हैं... ख़ौफ़ से फ़साद और फ़साद से ख़ौफ़... ये खेल मानव के लिखे इतिहास में उतना ही फैला है जितना धरती पर समुद्र... भारत ने भी अपने सबसे बुरे दौर को देख लिया था... कई मायनों में ये 1947 से बड़ी विभाजनकारी घटना सिद्ध हुई ... इतना हिन्दू-मुसलमान कभी नही था जितना उसके बाद शुरू हुआ... मस्जिदों में इतनी भीड़ नही थी जितनी उसके बाद शुरू हुई... मन्दिरों पर इतने नारे नही थे जितने उसके बाद शुरू हुए... और एक दूसरे पर इतना संदेह कभी नही था जो अब हो गया था..!

पापा ने कच्ची बाग वाली (मुस्लिम इलाके में हमारी एक सर्राफे की दुकान थी) दुकान बंद कर रखी थी महीनों से... चांदी-सोने के ज़ेवरात वहीं तिजोरी में थे... दुकान मंज़ूर भाई (भाई के दोस्त) के घर मे ही थी... महीनों बाद जब यह लगा कि अब वहाँ दुकान नही चल सकती तो मंज़ूर भाई ने सारा माल ला कर घर पर रख दिया... और किराया भी नही लिया बंदी के दिनों का शायद..! 

अब घर मे मुस्लिम मेहमानों का आना जाना कम होने लगा...मुझे थोड़ा सुकून भी मिला और बेचैनी भी क्यों कि पापा की कई अच्छे दोस्त दूर हो रहे थे... ख़ासतौर पर सरफ़ू भाई जो अपनी "फिएट कार" में बिठा कर हम लोगों को "विंध्यवासिनी माँ" का दर्शन कराने ले जाते थे...और अशरफ़ भाई जो अक़्सर ईद पर मीठी सेवइयां ले आते थे जो मेरी माँ और मेरे अलावा सभी घरवाले चाव से खाते थे... मैं नही खाता था क्यों कि मुझे मेरे लखनऊ वाले कप्पू चाचा (स्यामनाथ) ने बताया था कि "ये लोग" इसमे "आबे-अज़दाद" (यानी मृतक वृद्ध  की देह का गंदा पानी) मिलाते हैं... और प्रायः थूक कर खाने की चीज़ हिंदुओ को देते हैं ताकि उनका धर्म भ्रष्ट हो सके!.. आज सोचता हूँ "अफ़वाहों" का संसार कितना विस्तृत और बलवान होता है न!

वक़्त आगे बढ़ गया... मुझे "लोकल टीवी चैनल" "सिटी केबल" में बनारस का पहला एंकर बनने का अवसर प्राप्त हुआ... "ईशा टीवी" के निर्माण में मैंने "सिटी मनोरंजन" शुरू किया... साल 1996-97... कार्यक्रम सफल रहा और मैं भी... अब मैं आर्थिक रूप से स्वाबलम्बी हो रहा था... यद्यपि तब महीने की कुल कमाई मात्र 1000 रुपये होती थी टीवी से और काम शायद 12/14 घण्टे करना पड़ता था मगर मेरे लिए तो सब समय ही रसीला था... मैं तो परमात्मा को "रस" की तरह ही देखता आया था बचपन से... इस लिए हर कार्य मेरे लिए परमात्मा की सेवा थी... मैं "बस काम करना जनता था"... उसके लाभ-हानि पर विमर्श करना मुझे नही भाता था... हां! कार्य का श्रेष्ठतम होना आवश्यक था मेरे लिए!...यहीं काम करते हुए मुझे कई नए मित्र मिले समर मुखर्जी, सतीश चौरसिया, रतिशंकर त्रिपाठी, सुमन पाठक, संदीप पंड्या, वैशाली, विनीता सिंह, पूनम सिन्हा और डॉ• जयन्ती भट्टाचार्य "मौसी जी"....!

मौसी जी एक असाधारण महिला थीं.. हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत और बांग्ला भाषा तथा साहित्य की गहरी जानकर... एक विदुषी और कवियत्री... साथ ही "मीना कुमारी" की अद्वितीय आशिक... उनकी मेरी खूब जमती थी... वो मेरी बहुत प्यारी दोस्त थीं और कुछ हद तक हमज़बां भी (क्यों कि मेरी गन्दी हैंडराइटिंग बस वही फेयर कर पाती थीं)... लेकिन वो थोड़ी "वामपंथी" थीं... "दुष्यंत कुमार" की चेली... उनकी नज़्मों की एक क़िताब जो उन्होंने मुझे पहले-पहल दी "गुलमोहर जैसा जलता एहसास" ... उसके "टाईटल" पर ही दुष्यंत को छाप थी... वो प्रबल "फ़ेमनिस्ट" थीं... इस लिए कभी विवाह भी नही किया उन्होंने... उनको समाज से कई बातों की चिढ़ थी... यहाँ तक कि मेरे प्रिय गीतकार "गुलज़ार" से भी बहुत चिढ़ती थीं... कहती थीं-- "धोखा दिया उसने मीना कुमारी को... 300 डायरी में से बस एक छोटी सी क़िताब वो भी कितनी सस्ती सी... छि! भरोसा किया था मीना जी ने..!".... इस बात पर मुझे बहुत बुरा लगता था... मैं उनसे बहुत समझाता था कि गुलज़ार ने जो किया मीना जी के लिए वो बहुत कम लोग कर पाते हैं... पर वो न मानी तो मरते दम तक न मानी... इतनी चिड़चिड़ी होने के बावजूद उनमें गज़ब की संवेदना थी... ज़रा सी किसी को तकलीफ़ हो जाए तो मौसी जी बेचैन हो जाती थीं... और अपने काम को बख़ूबी करती थीं... पर मुझे अफ़सोस है कि उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा एक ऐसी संस्था पर नष्ट कर दिया जो उनके प्रति बेहद एहसानफरामोश निकली... बहरहाल! उन्होंने मुझे हिन्दी कविता के साथ उर्दू शायरी से जोड़ने में अहम भूमिका निभाई... जब मैं केवल हिंदी में लिखता था और उर्दू को उतना ही अछूत समझता था जितना को मुसलमान को... जबकि उर्दू सुनना मुझे उतना ही पसन्द था जितना मधुबाला,मीना कुमारी, नर्गिस, दिलीप कुमार, मुहम्मद रफ़ी और सुरैया... मौसी जी ने मुझे उर्दू की लज़्ज़त दी... उनके कहने पर मैंने "टैगोर" को लिखी विख्यात कविता "शाजहाँ" की उर्दू तर्जुमानी भी की... उन्होंने मुझे भाषाओं के प्रति दुराग्रह से मुक्त किया और सिखाया को भाषा "अमीर या ग़रीब" ज़रूर हो सकती है पर "नीच या अछूत" नहीं... हर भाषा मे उसका एक सौंदर्य है... और फिर उर्दू तो वास्तव में "विशुद्ध भारतीय भाषा" है... बाद में मैं यह भी समझ सका कि वास्तव में उर्दू भारत का पर्यायवाची ही है... विविधता से भरी, संकोची, उदार, परिष्कृत और लोकतांत्रिक भी...!

मौसी जी के ज़रिए ही मैं उनकी बहू और अद्भुत विदुषी डॉ• पूनम सिन्हा से निकट हुआ... वो संस्कृति, अंग्रेजी और हिन्दी तीन भाषाओं के साथ भाषा विज्ञान की ज्ञाता थीं... बांग्ला तो ऐसे बोलती थीं मानो सात पीढ़ियों से बंगाली हों न को बनारसी-लाला... उन दिनों वो बनारस के एक मुस्लिम बाहुल्य इलाके की "इस्लामिक पैटर्न" के "गर्ल स्कूल" में पढ़ाती थीं... और मुस्लिम बच्चियों से इतनी घुली मिली रहती थीं मानो वो उनकी ही बच्चियां हों... ग़रीब लड़कियों को फ्री ट्यूशन देना तो उनका शौक नही जनून था... बहुत हमदर्दी थी उन्हें मुस्लिम बच्चों से... उन्हें लगता था सरकार ने "मुस्लिम समुदाय में शिक्षा" को प्रसारित करने में कभी ईमानदारी नही दिखाई... उन्हें यह भी लगता था कि अगर मुस्लिम बच्चों को पढ़ने का सुअवसर मिले तो वो भी अपने सम्प्रदाय के पोंगापंथ को तोड़ सकेंगें... लेकिन मुझे उनकी ये सब बातें "इमोशन वीकनेस" ही लगती थीं... मैं उनसे कभी सहमत नही होता था.. उल्टे उन्हें यह बताने की कोशिश में रहता था कि मुसलमान कभी सुधनरने वाले नहीं क्यों कि इनके संस्कार में ही "नफ़रत" है!.. और इसके लिए मैं उस वक़्त तक जो भी "अफ़वाह" मेरी जानकारी की तरह थी सब उड़ेल देता था... जैसे "मक्केश्वर महादेव" की कैद और इस्लामिक शासकों के अत्याचार... पर वो तो टस से मस नहीं होती थीं बस हँस कर पूड़ी सब्जी परोस देती और कहती थीं "खाओ और कविता सुनाओ" ये सब राजनीति औरों के लिए छोड़ दो ये हमलोगों के बस की नहीं... और मैं भी अपनी कविताओं के श्रोता का शोषण प्रारंभ कर देता था।

फिर एक दिन पूनम जी मे मुझे मखमल में लिपटी एक मोटी सी क़िताब दी और कहा ये "कुरआन" है... एक बार ये भी पढ़ लो जैसे तुमने तमाम हिन्दू शास्त्र पढ़ें और बाइबल भी... क्यों कि इस्लाम बिना इसे पढ़े नही जाना जा सकता... वो अरबी-अंग्रेजी की क़ुरान थी... मैंने उसे 40 दिन में पढ़ा... फिर एक दिन पूनम जी ने पूछा-- "पढ़  लिए क़ुरान क्या समझे?"...मैंने कहा इस पर गीता की गहरी छाप है ऐसा लगता है जैसे "अल्लाह" की जगह कृष्ण होना था और बात बन जाती.... साथ ही यह बौद्ध मत से भी प्रभावित है... हां इसके नियमो में "अरबी क़बीलों" की "रुख़ी अवधारणाओं का ढेर है"... उन्होंने हंस के कहा -- "बस?"... मैने उत्तर दिया - " और एक बात... मैं जो समझता था अब तक इस्लाम वो भी नही है... ये एक परिष्कृत-सम्प्रदाय है... पर मुसलमानों को शायद इसकी पूरी जानकारी नही होती!... तब वो बोलीं -" एक बार "बर्नाड शा" ने कहा था इस्लाम दुनिया का सबसे अच्छा मज़हब है और मुसलमान सबसे ख़राब मज़हबी!"... मैंने तुरन्त कहा-- "वही तो! मुसलमान अच्छे होते ही नहीं!"... तब वो बोलीं अच्छे तो हिन्दू भी नही होते और ईसाई भी नही क्यों कि अच्छा तो अब कोई इंसान ही नही है न..!

सन 2000 में मेरे पिता ने पक्के हिन्दू मुहल्ले (राजमन्दिर) वाला वो मकान बेच दिया... और नया मकान "पीलीकोठी" नामक मुस्लिम मुहल्ले के पास ही ले लिया (यह सोच कर की जल्द कहीं और शिफ्ट हो जाएंगे)... पर मुझे उनका यह निर्णय बिल्कुल पसन्द नही आया... मैं "गन्दे मुस्लिम इलाके" में कत्तई रहने को तैयार नहीं था... सो मैंने रोहित के घर रहने का निर्णय लिया और अगले 2-3 महीने मैं उसके "गोलघर" वाले घर मे ही रहा ( जहाँ उसके पापा "मुन्ना बाबू" रह रह कर अकेले में मुझे पूछते थे "बेटा! घर की याद नहीं आती?"... और मैं जानता था कि उनके कहने का अर्थ था "बेटा! घर कब जाओगे!")... बाद में बड़े भाई की शादी तय होने पर मैंने वापस घर जाने का निर्णय ले लिया... उफ़! कितना भारी मन था मेरा यह सोच कर की अब दिन-रात उन्ही "मालिच्छ लोगों" को देखना होगा... और जब मैं पहली बार उस इलाके में गया तो हर तरफ़ "लुंगी और टोपी" पहने जुलाहों की भीड़ ने मुझे भारत के बाहर होने का एहसास दिलाया... मैंने रोहित से चिढ़ कर कहा "जाने क्या सोच कर पापा ने इस नरक में घर लिया है!"... इस पर रोहित ने कहा --"अरे! ये भी इंसान हैं अभी आए हो थोड़े दिन रह कर देख लो नही तो घर चलना!"

लगभग एक साल तक मैने अपने आपको मुसलमान पड़ोसियों से इतना दूर रखा जितना को "हिन्दू मन" रख सकता था... मैं उस रास्ते से जाता भी तो उन लोगों की तरफ नही देखता... इस बीच विनीता सिंह की शादी हो गई.. वो बनारस से चली गईं...मुझे याद है जब उनकी शादी हुई तब भी बनारस में हिन्दू-मुसलमान दंगे हुए थे... और कर्फ्यू लगा था... सारा "रिशेप्शन" बर्बाद हो गया था... संगीनों के साए में बारात आई और डोली उठी... विनिता जी जो मेरी "दिदी" की तरह थीं उनकी वो हँसी जो वो अपनी ही उजड़ी हुई पार्टी पर हँस रही थीं मुझे बहुत तकलीफ़ दे रही थी... और उन "मुसलमानों" पर गुस्सा आ रहा था जिन्होंने मेरे हिसाब से "दंगे" किये थे... विनीता सिंह एक "सेक्युलर" माइंड की लड़की थीं बहुत "बोल्ड"... कुछ हद तक "नास्तिक" मग़र मेरी संगत ने उन्हें धीरे धीरे आस्तिक और फिर कट्टर हिन्दू बना दिया था (जिसका ज़िक्र वो अब तक करती हैं)... इसके कुछ दिन बाद ही मेरा सबंध रोहित से ख़त्म हो गया... अब मुझे अकेले ही सफ़र करना होता था... चूँकि रोहित के होते मुझे कभी गाड़ी की चलाने की ज़रूरत नही पड़ी इस लिए गाड़ी चलानी मुझे आई भी नहीं (वैसे मैंने बाइक चलानी सीखी थी)... और अब मुझे "बनारसी रिक्शा" ही सहारा रह गया था.. जो कि मुझे बहुत पसन्द है... या पैदल चलना... (मुझे "मोशन सिकनेस" है अतः "कार" में अच्छा नही लगता)... तो मज़बूरी में मुझे मुस्लिम इलाकों से धीरे धीरे गुज़रना पड़ता था... और मुझे खूब पता था कि मेरे जैसे "विचित्र व्यक्तित्व" को ये "दकियानूसी समाज" कैसे देखता होगा...अतः मैं बस उस रास्ते से चुपचाप गुज़र जाता था... मग़र एक दिन मेरी तबियत रास्ते मे ही कुछ ख़राब हो गई... मुझे उन दिनों "पैनिक अटैक" आते थे... इज़तराब...व्याकुलता की बीमारी... सो मुझे मज़बूरी में उस इलाके के "मेडिकल शॉप" पर रुकना पड़ा... तमाम मुस्लिम नामों में ये इंग्लिश नाम "स्टार मेडिकल" मुझे थोड़ा भरोसेमंद लगा... मैंने उसके दुकानदार (जो कोई 26-27 का गोल मटोल लड़का था) को अपनी तकलीफ़ बताते हुए दवा माँगी... उसने मेरा हाल देख कर कहा कि -- "पण्डित जी! आपको डॉ• को दिखाना चाहिए!"... यह सम्बोधन सुन कर मैंने उससे अचरज से पूछा --" आप मुझे जानते हो?.. उसने कहा "हां! आप ज्योतिष हैं न?... आपके बारे में सुना है... चलिये मैं आपको डॉ• के पास ले चलता हूँ!.. उस वक़्त उसकी दुकान पर कोई "स्टाफ़" नही था और मेरा डॉ• वहां से कोई 5 किलोमीटर दूर (बनारस में ये दूरी दिल्ली के मुकाबले कोई 20 km हो जाती होगी.. जाम के चलते)... पर उसने अपनी दुकान का "शैटर डाउन" किया और अपनी "स्कूटर" पर बिठा कर मुझे डॉ• के पास ले गया... जहाँ मेरा ecg और दूसरे टेस्ट हुए... मेरा रक्तचाप बहुत कम हो गया था... उसने सारे पेमेंट दिए और दवा ली फिर मुझे कॉफी पिलाया... और मेरे गंतव्य पर छोड़ा... जाते हुए मैंने पूछा -- " धन्यवाद! पर आपका नाम?" उसने कहा -- "इमरान खान!"... मैंने उसे चौंक कर देखा और सोचने लगा ये "वो मुसलमान" तो नहीं जिसे मैं बचपन से जानता था... ये तो "हिंदुओ जैसा अच्छा" है!

इमरान खान मेरा पहला "मुस्लिम-कनेक्शन" बना... एक रविवार वो मेरे साथ घूमने निकला और कहाँ ले गया... "काशी हिन्दू विश्वविद्यालय" में स्थित विश्वनाथ मंदिर में जहाँ संयोग से मैं यब तक कभी नही गया था... और इस बात को जानकारी से इमरान को बहुत हँसी आई... उसने हँस कर कहा बनारस में रह कर "इतने सुंदर मंदिर में नहीं आए तो क्या किये आप पण्डित जी!"... मैं उस मंदिर से तो बहुत कम प्रभावित हुआ (क्यों कि बहुत कृत्रिमता है वहाँ) लेकिन इस मुसलमान से बहुत प्रभावित हुआ... आज पहली बार मेरा भ्रम टूट रहा था "साम्प्रदायिक-गर्व" का... आज पहली बार मैं सामने खड़े मुसलमान को "कनेक्शन" को जगह "मित्र" कहना चाह रहा था मग़र बरसों के नशे इतनी जल्दी कब काफ़ूर होते हैं... आठ मैंने यह कह कर ख़ुद को समझा लिया "कि एक मुसलमान के अच्छे होने का मतलब "मुसलमान" का अच्छा होना नहीं... और क्या पता ये बस एक "व्यवहार" भर हो..।

"स्टार मेडिकल" धीरे-धीरे मेरे लिए रात का अड्डा बनता चला गया... कुछ मित्रतावश और बहुत कुछ जिज्ञासावश कि आख़िर इस "कम्युनिटी" के भीतर क्या है?.. चुँकि बचपन से "वैज्ञानिक-चित्त" होने के कारण मुझे "संदेह" की बीमारी सी है और इसके घेरे में मैं स्वयम को भी परखता रहता हूँ और अपनी अवधारणाओं को भी... इस बार मैं भारतीय मुसलमानों को परख रहा था अनायास..! समय के साथ मुझे नए मित्र मिलने लगे इमरान के ज़रिये... "मतिउल्ला अंसारी", "तुफ़ैल", "नज़र", "शाहबुद्दीन" (बॉबी), "सरदार मुन्नू सलाम", "जमाल", "इक़बाल", "फ़रहान", "इमरान" और फिर मिला "हस्सान"! एक खूबसूरत ख़ूबसिरत नौजवान! मग़र गज़ब का बदजुबान! कब क्या बोलना है उसे बिल्कुल पता नही था... बस जो दिल मे वही ज़ुबान पर भी रहता था... मुझे याद है "नज़र" के पी• सी• ओ• में जब वो पहली बार मिला तो जाते जाते बोला "चलते हैं महाराज जी! अगर ज़िन्दगी रही तो दोबारा मिलेंगे इंशाअल्लाह!"... सब हँस पड़े मग़र मैं सोचता रहा बात तो पते को कह रहा ये बंदा! जो मैं जानता हूँ वो ये जीता है... और कितना खूबसूरत लफ़्ज़ है ये "इंशाअल्लाह"... इस्लाम की शायद सबसे बड़ी "शाब्दिक" खोज है "इंशाअल्लाह" और "अल्हम्दुलिल्लाह" ... दो लफ़्ज़ों में तमाम चिंताओं से मुक्ति... "गीता" के परम उपदेश "निम्मित मात्र" का अरबी संस्करण!... एक पल में मुझे मेरे सामने से जाता वो मुसलमान लड़का चैतन्य की वैष्णव शाखा का बैरागी भक्त नज़र आने लगा... और ख़ुद मेरे भीतर का "मैं" एक "मज़हबी कैदी"!

मैं इतना आसान पत्थर तो न था कि ज़रा से पानी से चटक जाता... मैंने "संग दोष" के सिद्धांत को अपने सामने रखा और स्वयम को समझाया कि यह सब वहम मुझे हो रहा है क्यों कि मैं इन लोगों के संग रह रहा हूँ... और उस कारण इनके दोषो को कम करके आंक रहा हूँ...इस तरह मैंने फिर मेरे "हिन्दू" मन को समझा लिया... बल्की मुझे एक और "फितूर" सुझा... मैंने सोचा क्यों न इनकी परीक्षा ले ली जाए... यह बात शायद 2003-2004 की है... तब मेरा दर्शन "अक्" एक संस्था भी बन रहा था... चूँकि मैं ये मानता रहा हूँ (आज भी) की संसार मे केवल एक धर्म है "सनातन धर्म" और शेष सभी पंथ उसकी विश्वव्यापी शाखाएं मात्र हैं इस लिए मेरी संस्था की सदस्यता लेने के लिए लिखित में "अपने सनातन धर्मी होने की" घोषणा करनी पड़ती थी.. अतः मैंने सोचा कि यदि सचमुच मुसलमान स्वतंत्र सोच रखता है और सर्वधर्म समभाव की अवस्था मे है तो वह अवश्य मेरे साथ जुड़ेगा... और उस विचार के साथ मैं "अक्" के फार्म को ले कर अपने "मित्र" मुसलमानों के बीच आ गया... मग़र ये क्या मुसलमान इस शब्द "सनातन" से कतराने लगे... मैंने मतिउल्ला को कहा तो उसने बात तुफ़ैल पर टाल दी... मैंने तुफ़ैल को कहा तो वो बोला-- "हम जुड़ जाएंगे अगर हमारे उस्ताद जुड़ जाएं!"... और ऐसा कह कर वो मुझे "कयूम अंसारी साहब" के पास ले गया... पर उन्होंने बहुत सारी "प्रोग्रेसिव" बातें करने के बावजूद "फार्म" नही भरा और बोले -- "अगर मेरे उस्ताद मान जाएँ तो मैं "एग्री" हूँ!"... अब मैं उनके उस्ताद के घर पहुंचा... चौहट्टा में ज़ेरे-गूलर "उर्दू मंज़िल".... बस वहीं एक लकड़ी की चौकी पर विराजमान थी वह प्रतिमा जो मेरे जीवन को हमेशा के लिए नई रोशनी देने वाली थी और जिसका नाम बताया कयूम साहब ने -- "सुलैमान आसिफ़"!

आसिफ़ साहब ने मेरी पूरी बात गौर से सुनी... फिर उन्होंने एक सवाल पूछा कि --"इसमे जो श्लोक है गीता का उसका कोई विशेष कारण?".... मैंने कहा-- "बस इस लिए की ये मेरी बात सही तरह "कन्वे" करता है... इस बात पर उनके साथ खड़े उनके दो-सुपुत्र "इमरान हसन" और "नोमान हसन" मुझसे मज़हबी बहस करने लगे जैसे कि "गीता ही क्यों कुरान क्यों नहीं? वगैरह"... बहस बहुत लंबी चली (और कुछ तल्ख़ भी)... मुझे लगने लगा की मैं बिल्कुल सही हूँ कि मुसलमान "अच्छा" हो सकता है पर "सच्चा" नहीं.. ठीक तभी आसिफ़ साहब गरज़ पड़े--" अमाँ! हद करते हो! एक तो उपाध्याय जी इतनी अच्छी बात ले कर चले हैं... जिसमे इंसानियत का भला छिपा है... और तुम लोग बिना-मतलब "गीता- कुरान" किये पड़े हो... अरे! कोई भी ज़ुबान हो अगर बात सच्ची है तो मानने के काबिल है!".... मैं एक मुसलमान के मुँह से ऐसी बातें सुन कर आवाक रह गया... मग़र असली अचरज तो अब होना था... अचानक उन्होंने वो "फार्म' उठाया और अपनी "फाउंटेन पेन" से भरते हुए वहाँ हस्ताक्षर किए जहाँ साफ साफ लिखा था "मैं अपने सनातन धर्मी होने की घोषणा करता हूँ"... और फिर मेरी ओर काग़ज़ बढ़ाते हुए बोले -- "उपाध्याय जी आप बड़े मक़सद को ले कर चलें है मैं आपके साथ हूँ जब तक मेरी हयात है!"... मैं इस उदारता और प्रेम के समक्ष नतमस्तक था... मेरे पूरे जीवन मे मुझे मेरा ये "पहला दोस्त" मिला था जो मेरी "बात समझ सकता था"...और तब से मैं उन्हें अक्सर मिलने लगा और इज़्ज़त भरे प्यार से पुकारता था "आसिफ़ साहब"!

इत्तेफाक से हमारे पूर्वज पड़ोसी निकले (हम दोनों के पैतृक निवास पूर्वांचल में (बढ़हल गंज) है)... वो उस सूर्यवंशी परिवार से थे जिन्होंने ने "शाह आलम" के ज़माने में कल्मा पड़ लिया था (यद्द्पि एक पट्टेदारी अभी भी उनकी हिंदुओ में ही है)... वो कभी चंद्रशेखर आज़ाद के फ़ौजी किशोर थे... तो कभी अलम्मा इक़बाल के दीवाने जवान...कभी इंदिरा गाँधी से राजनीतिक बहस करते प्रौढ़ थे... तो कभी "साम्प्रदायिक दंगों" में अपने दामाद की हत्या के बावजूद इस देश की महान संस्कृति पर गर्व करने वाले अद्भुत वृद्ध...और सबसे बढ़ कर मेरे जीवन मे आए "साम्प्रदायिक सौहार्द" की ज़िन्दा मिसाल थे आसिफ़ साहब...!

मुझे बचपन से यदि किन्ही दो-मनुष्यों से अगाध ईर्ष्या (मिठास भरी) रही है तो वो हैं "महर्षी वेदव्यास" और "गोस्वामी तुलसीदास"... जब से मैंने इन्हें जाना तभी से यह भी जान लिया कि मैं समय मे कुछ भी हो सकता हूँ परन्तु ये नहीं... इन दोनों के समान प्रतिभाशाली और ज्ञानी मेरी दृष्टि में संसार मे न कभी हुआ न होगा... इनमें व्यास को बहुत सारे गुणों के अतिरिक्त मैं "भारत" का रचयिता मानता हूँ... "हिन्दू सम्प्रदाय" का निर्माता... और गोस्वामी तुलसीदास को "हिंदू सम्प्रदाय" का सबसे बड़ा रक्षक... जिन्होंने वास्तव में हिन्दी भाषी भारत मे तेजी से हो रहे इस्लामीकरण को अपने ज्ञान बुद्धि और भक्ति से लगभग समाप्त कर दिया.. (यद्द्पि इसका "क्रेडिट" इतिहास में नही मिलता उन्हें)... सुलैमान आसिफ़ तुलसीदास के मुरीद थे वो भी इतने बड़े की मुझसे अक्सर कहा करते थे-- "उपाध्याय जी! क्या शख़्स थे साहब तुलसी दास जी! पूरी दुनिया मे मैं उनसे बड़ा शायर किसी को नही मानता... जिनकी शायरी ने इस ज़माने में वो मुकाम हाँसिल किया जो कभी पयम्बरों की किताबों को दुनिया मे मिला... उन्होंने ने अपनी किताब को हिंदुओ में "आसमानी क़िताब" का दर्ज़ा दिलवा दिया! ये करिश्मा है करिश्मा!"... मैं उनके मुँह से यह बात सुन कर शर्मिंदा हो गया अपने उस अतीत पर जो "मुसलमान" को "हिन्दू विरोधी दैत्य" समझता था..शुक्रिया आसिफ़ साहब (मरहूम)..!

तब तक मैं काफी बदल चुका था... "संगदोष" कहें कि "सत्संग" पर मेरी दृष्टि से "मज़हबी चश्मा" मुहब्बत की  संगेमरमरी ज़मीन पर गिर कर कब चकनाचूर हो गया मुझे कुछ भी याद नहीं... यद्धपि मेरा "सनातन धर्म" की महानता पर गर्व तब भी जस का तस था(और अब भी है)... मग़र अब मेरे सैकड़ो मुस्लिम मित्र-परिचित और शिष्य हो चुके थे... जो रात रात भर बैठे मुझे सुनते रहते... जिन बातों में कुछ हिन्दू कुछ मुस्लिम कुछ सियासत कुछ सिनेमा कुछ विज्ञान और कुछ ध्यान भी शामिल था..!

"ध्यान"... 2000 से 2005 के दरम्यान मैंने बनारस में कई छोटे-छोटे ध्यान केंद्र बनाए जो मूल रूप से आध्यात्मिक चर्चा और सनातन सिद्धांत को नई भाषा देने के उद्देश्य से बने... धनाभाव के चलते यह केंद्र प्रायः किसी न किसी सहयोगी के यहाँ खुलते... जिनमे पहले पहल सन् 2000 में  "बालमुकुंद त्रिपाठी" के अहाते में "उत्तम जीवन शिक्षा केन्द्र" के नाम से शुरू हुआ तब तक कोई मुसलमान नही जुड़ा था ... उसके बन्द होने के बाद... सुश्री सुमन पाठक जी के घर पर मेरा दूसरा केंद्र "अक् ध्यान केंद्र" के नाम से शुरू हुआ... और यहाँ आया मेरा पहला मुस्लिम शिष्य "इमरान अशरफ़"!

वो मई की तेज़ गर्मी का महीना था... मेरी "ध्यान और डिस्कोर्स" की क्लास कोई 2 बजे शुरू होती थी... इस क्लास में आने के लिए एक बड़ी "फ़ीस" देनी होती थी (कोई 10 हज़ार महीना)... इस लिए बहुत कम लोगो ने आना शुरू किया... बस 2-4 ही लोग थे...बनारस इतना महंगा आध्यात्म तब नही खरीद सकता था... और इमरान तो केवल एक छात्र था वो भी मुस्लिम (बहुत "कंजरवेटिव फैमिली" से भी)... पर वो आया दोपहर में गर्मी में कोई 43-44℃ के तापमान पर साइकिल भगता अपने घर से कोई 7-8 किलोमीटर दूर... उसने मुझसे कहा -- "महाराज! मुझे आपका ज्ञान चाहिए! पर मेरे पास धन नहीं!"... मैंने कहा -- "धन तो ज़रूरी है! बिना उसके तुम्हे इस क्लास में नही ले सकते! कुछ तो होगा?"... वो जेब से 100 रु• निकालते हुए लजा कर बोला -- "बस यही है!"... मैंने कहा-- "चलेगा! बाक़ी कीमत तुम्हरा इतनी गर्मी में साइकिल से आना वो भी सनातन धर्म को समझने की चाह चुका देगी!"... और वो मेरी क्लास का सबसे होनहार शिष्य सिद्ध हुआ!

अब मैं मुसलमानों में इतना घुल गया था कि उनका त्योहार मुझे उतना ही आकर्षक लगने लगा जितना अपना... ईद/ बक़रीद तो ख़ैर बड़े त्योहार थे  (वैसे बक़रीद मुझे अब तक पसन्द नहीं)... पर मुझे ईदमिलादुन्नबी की रौनकें और मुहर्रम के ताज़िये तथा मातम तक लुभाने लगे... रात रात भर मैँ घूम घूम कर तुफ़ैल के साथ "नातिया कलाम" सुनता... ताज़िये देखता और इनाम बंटता... मग़र सबसे प्यारा लगता मुझे "रमज़ान का महीना"..!

"गुलपोश कभी इतराए कहीं/ महके तो नज़र आ जाए कहीं/" गुलज़ार साहब के इस रूमानी मिसरे को जब मैं तसव्वुफ़ का रंग दे कर "इकराम चा" और "भोला उस्ताद नक़्शेबन्द" को व्याख्यान सुनता तो उनके साथ घेरा बनाए बैठे "जमुना टॉकीज" के आस पास के मुसलमान भक्ति भाव से भर जाते... उन दिनों रोज़े गुलाबी ठंड में आते थे रात भर वहीं कहीं "पीलीकोठी" से "हरितीर्थ" के दरम्यान मैं टहलता बतियाता रहता... कभी मुहम्मद कभी रूमी, कभी राबिया और बीच बीच मे राम, कृष्ण, और बुद्ध की बातें... मीना कुमारी और मधुबाला का ज़िक्र तो लता दिदी और टैगोर की बात भी... कुल मिला कर प्रवचन और हँसी का दौर तब तक चलता जब तक "सहरी" की आख़री पुकार न गूँज उठती मस्ज़िद से... फिर मैं नेशनल के पास वाले "कब्रिस्तान" से होता हुआ घर तक पहुंच जाता था (कभी कभी तैसिफ घर तक छोड़ देता गाड़ी पर अगर जागता रहता तो)... उन्ही दिनों तौसीफ ने मुझे "जोलहगी" सीखना शुरू कर दिया... तौसीफ बहुत प्यारा सा मुमताज़ का छोटा भाई... उसे मेरा बहुत ख़याल रहता था... रोज़ मेरे आने पर "ठंडा पानी" और "लिम्का" लिए मिलता था... बदले में उसे लता जी की बातें और "राजबन्धु" कि मिठाई चाहिए होती थी... कितना मासूम था वो और शिष्ट... (वैसे अब भी है)... और उसका भाई मुमताज़ तो ग़ज़ब का सच्चा इंसान है... उसमे दोस्ती, वफादारी, मददगारी और देशप्रेम सब एक साथ है... उसमे संसार को जानने की बहुत ललक है... अपने संघर्ष से व्यापार में अपना एक आला मुकाम बनाने वाला मुमताज़ सच माने में एक "सेक्यूलर इंडियन" है... और हाँ रमज़ान की बात हो और "बॉबी" का ज़िक्र न करूं तो गुनाह होगा... बॉबी के साथ रात रात "बाइक" पर बैठ कर दूर के मज़ार मस्ज़िद देखते हुए भोर में किसी पुराने जीवित मंदिर का दर्शन करके घर लौटना न मालूम कितनी बार हुआ... यद्द्पि उनके बड़े भाई "बहाउद्दीन सिद्दकी" से मेरी दोस्ती अधिक हुई... जबकि वो एक "अलीगढ़ी मुस्लिम" हैं... चटख उर्दू और "वहाबी" अक़ीदे वाले (जिससे मूझे अब भी चिढ़ है)... मग़र इंसानियत और वतनपरस्ती के कायल हैं "बहार भाई"... जिनके साथ रमज़ान की आखरी रात यानी "चाँद रात" की ख़रीदारी करने में बड़ा मज़ा आता हैं तबसे अब तक।

चाँद रात की बात करूँ तो "डॉल मंडी"(दालमंडी) का ज़िक्र भी करना होगा... ईद की पहले वाली रात को ये कोई डेढ़-किलोमीटर की गली में टहलता बाज़ार इस क़दर गुलज़ार होता है कि मत पूछो... इस गली में मेरा आना जाना 1999 के बाद बढ़ने लगा... कुछ कारोबार के सिलसिले और कुछ दोस्ती के मुझे इस गली में ले आने लगे... यहां मेरे बचपन का दोस्त "पीयूष ओझा" रहता है... उसके घर के कटरे में कई इलेक्ट्रॉनिक की दुकानें हैं उनमें मैं अक़्सर "रिज़वी भाई" को मिलता था और यहीं पर मिलीं मेरी बहुत प्यारी "नज्मी जी" (नजमी सुल्तान सभासद)... एक सितमज़दा खातून लेकिन बड़ी खुद्दार और मेहनती... बचपन से माँ-बाप भाई-बहन की खिदमत करती इस महिला को चंद दिनों का जो प्यार और सुकून हाँसिल हुआ अपने पति "कमाल" से... वो भी एक सनसनाती-गोली ने अचानक एक सुबह छीन लिया ... और ये बदनसीब अपनी गोद मे अपने पति की निशानी लिए अवाक देखती रह गई... अभी अभी की सुहागन अभी अभी विधवा हो गई... लेकिन ये कोई लाचार स्त्री नही थी.. ये तो अपने बलबूते जीने और जिलाने का हौसला रखने वाली नारी थी.. और उसने यही किया... नजमी  अपनी मेहनत (वक़ालत का पेशा) ज़ारी रखते हुए अपने बच्चों को पालती रहीं... और साथ ही रूहानी सुकून की तलाश में मेरे "ध्यान केंद्र" में आती रहीं जो अब "अक्- सोसाइटी फ़ॉर सनातन रेवुलुशन" के नाम से "सिगरा" में "श्रीमती रेनू राय" के घर चलता था।

रेनू जी बड़ी भक्त-प्रकृति की थीं...मुझे मिलने से पूर्व ही वो ध्यान आदि से जुड़ी थीं..ओशो/निर्मला देवी/ गोयन्का सब के यहाँ से कुछ कुछ बटोरे हुए मुझ तक आईं (ज़ाहिर है मेरे पास से भी कुछ बटोर कर आगे बढ़ गई होंगी)... और मेरी कक्षाओं को चलाने में बड़ी मददगार रहीं... वो एक सुंदर ध्यान-केंद्र था... मग़र उसकी बड़ी सुंदरता यह थी कि वहाँ आने वाले 70% लोग मुसलमान थे... इमरान,बहार, तुफ़ैल, हस्सान और कितने ही लोग... जो रोज़ ध्यान में बैठते और सबसे पहले "ओंकार-नाद" और आखिर में "राम-ध्वनि" पर ध्यान करते... साथ मे सूफ़ी कव्वाली और लता जी या कुमार गन्धर्व के भजनों पर भी ध्यान होता और साथ मे मेरी बेहद काफ़िराना बातों से भरी तक़रीर जिसे बड़े प्यार से सब सुनते और अपने अपने मतलब की सीख उठा कर "एशा" की नमाज़ पढ़ने निकल जाते... ये रोज़ शाम का सिलसिला था... कई मायनों में साम्प्रदायिक-संगम की प्रयोगशाला थी यह कक्षा..।

ये बात सन 2004-5 की थी जब रमज़ान के दिनों में हस्सान ने कहा कि महाराज जी क्या आप मेरे कहने से एक रोज़ा रखेंगे और मुझे इफ़्तार करवाएंगे... "मैं अपने रोज़े का सवाब भी आपको मिल जाए इसकी दुआ करूंगा.!" ... यह बात बहुत अजीब थी और अज़ीज़ भी... मैंने कहा-- "मुझे नही पता पर... मैं कोशिश करूंगा... बाकी तुम्हारा अल्लाह जाने!"... उसने खुश हो कर कहा "इंशाअल्लाह! आप ज़रूर रहेंगे!"... और रमज़ान की इक्कीसवीं तारीख़ (शबेक़दर) को मैंने अपनी ज़िंदगी का पहला रोज़ा रखा... और हस्सान को इफ़्तार की दावत दी... मैंने ख़ुद किचन में जा के कई चीजें बनाई जैसे पकौड़े/चने की घुघनी/ शर्बत और फ्रूट सलाद...  और ऐसा करते हुऐ मुझे कोई प्यास भी नही लगी... बल्कि यूँ लगा रामनवमी को ब्राह्मण भोजन तैयार हो रहा है... सच उस दिन पहली बार मैं एक मुसलमान को "मलिच्छ" नही "पवित्र" मान कर सेवा करना चाहता था... और मैंने यही किया... वो पहला रोज़ा और इफ़्तार ख़त्म होने के बाद मैंने हस्सान से कृतज्ञता के साथ कहा -- "अगर भगवान् शक्ति देगा और भक्ति भी तो मैं हर साल एक रोज़ा रखूंगा तूम्हारी पवित्रता के नाम..!" और ये दस्तूर अब तक हर साल निभाया है मैंने अल्हम्दुलिल्लाह..!

2005-6 आते आते मैं मुस्लिम समुदाय में एक जाना पहचाना नाम बन गया था... पण्डित जी, उपाध्याय जी और महाराज जी के नाम से आदमपुर से मदनपुरा तक के मुसलमानों में मेरी पहचान बन गई थी... लोग अक्सर मुझे अपने कार्यक्रमो में बुलाते थे और सुनते थे... सुलैमान आसिफ़ साहब तो मेरे हर प्रोग्राम के "चीफ गेस्ट" होते थे... और उनके बेटे मेरे प्यारे मित्र इमरान साहब मेरे "एंकर".. वाह! ईश्वर ने क्या मुस्कान और ज़ुबान दी है इमरान साहब को जो भी मिलता है रिश्ता बना लेता है उनसे और वो रिश्ता निभाना खूब जानते हैं... मग़र सियासत को रिश्ते निभाने से अधिक रिश्ते बिगाड़ने में मकबूलियत मिलती है।

2006 में बनारस की पहचान "संकटमोचन मंदिर" में बम धमाके होते हैं... सैकड़ो घायल और सात मासूम इंसानों की मौत...पूरा माहौल बदल जाता है... अभी तो होली की सुबह हुई थी... और ये खून की होली... और मारने का ज़िम्मा लेने वाले संगठन के झंडे का रंग "हरा"... पूरा बनारस बौखला गया... मैं उस समय "वीरू"(विजय शंकर) से मिलने उसके और "दीपक मधोक" के "लोकल-टी वी-चैनल" "एस टीवी" के ऑफिस में गया था!

इस्लामिक-आतंकवाद के झमेले का वह प्रारंभिक-काल था...मैंने वीरू से कहा - "हमे तुरन्त कुछ करना होगा, वर्ना बनारस के माहौल को बिगड़ते देर न लगेगी!"... उसने पूछा -- "क्या करेंगे आप..?" मैंने उत्तर दिया -- "एक "लाइव-सेशन" करते हैं सभी धर्म-गुरुओं, प्रमुख राजनीतिक-दलों और सभ्रांत-नागरिकों को बुला कर, और जनता से अपील करते हैं कि इस मुद्दे को ले कर "आपसी-सौहार्द" न बिगड़ने दे..!" यह सुन कर वीरू डर गया और उसने ऐसा कार्यक्रम करने से इनकार कर दिया.. तब मैंने मधोक साहब को फोन किया उनके साथ मेरा बरसों से एक मैत्री-पूर्ण सम्बंध रहा है और मुझे यह पता था कि वो बनारस के लिए कोई हितकर-कार्य को मना नही करेंगे... सो मेरे आग्रह पर उन्होंने ने आग्रह किया--" यह कार्यक्रम तभी होगा जब आप ही इसका संचालन करेंगे क्यों कि मुद्दा बहुत संवेदनशील है..!"... मैंने हामी भर दी और कार्यक्रम "लाइव" होने लगा... शहर भर से फोन कॉल आ रहे थे पूरे बनारस में लोग इस लोकल चैनल को लगातार देख रहे थे और सराह रहे थे... पता नहीं किसकी समझ काम आई लेकिन इतने बड़े कांड के बावजूद बनारस में दंगे-फसाद नहीं हुए... और इसके पन्द्रह दिनों बाद हमने फिर इस विषय पर एक बड़ा कार्यक्र रखा "प्रेक्षागृह वाराणसी" में "हिंदी हैं हम" के शीर्षक से... इस बेहद सफल कार्यक्रम में सुलेमम आसिफ़, अमृता बर्मन और कृष्णकांत के प्रभावी वक्तव्यों के अतिरिक्त सबसे हृदयस्पर्शी-भाषण था इस्लामिक-विद्वान मौलाना हारून नक्शबंदी का जिन्होंने सनातन धर्म की विराटता और इस्लाम के विशुद्ध रूप की चर्चा करते हुए भारत की शक्ति दिखलाई... और इसके बाद तो जो हुआ वह इतिहास है... जब मृतकों की आत्मा की शांती के लिए प्रार्थना में तमाम मुसलमानों ने एक ईसाई पादरी (जो इस्लामिक दृष्टि से काफ़र है) कि इमामत में खड़े हो कर दुआख्वानी करने लगे..!

अब मेरी दृष्टि बदल चुकी थी... हिन्दू-मुस्लिम मुझे एक से पवित्र और एक से ही पापी नज़र आने लगे थे... सब की मुस्कुराहटें और अश्क़ एक से लगने लगे थे... मैं अब कुछ अधिक "मनुष्य" हो रहा था... इन बदलते अनुभवों को मैंने "तसव्वुरे-जांना" की शक्ल में समाज के सामने रखा और ये उद्घोषणा भी की.. कि हिंदुस्तान की संस्कृति वास्तव में "उर्दू-संस्कृति" है... आप उर्दू कहिये तो हिंदुस्तान नुमाया हो जाएगा...!"

सन 2007 में मैं दिल्ली शिफ़्ट हो गया अपना "आश्रम उठाए"... और रामा तिवारी नानक पुस्तक व्यवसाई के घर किराएदार हो गया... रमा जी "अक्" को एक नए धर्म की शक्ल में  इमेजिन करते थे... अतः वो मुझे दिल्ली ले गए (दिल्ली भारत मे विचारों की सबसे बड़ी मण्डी जो ठहरी)... दिल्ली ने मुझे बहुत कुछ सिखाया जिनमे सबसे बड़ी बात थी कि "लोकतंत्र में लोग जो कर रहे हैं वो वास्तव बस कुछ लोगों की इच्छा का परिणाम है! अतः हम जिसे लोकतंत्र मान बैठे हैं वो वस्तुतः 'राजतांत्रिक प्रजातंत्र' की विडम्बना मात्र है!"

दिल्ली में रहते हुए मेरी मुलाक़ात अनेक अच्छे या कम अच्छे लोगों से होती रही पर उनमें एक सिक्ख-युगल मुझे कदाचित जीवन भर याद रहेंगे.. पग्गड़ बांधे खिलखिलाते हुए हैंडसम "हरतेज जी" और ललाट के मध्य सूरज नुमा बड़ा सा लाल टिका लगाए चमचमाते सफ़ेद बालों में जुड़ा किये गोल-मटोल मग़र बहुत ही सुंदर और सौम्य सी "रेखा जी"... ये दोनों ही "अंग्रेजी" के महाविद्वान थे और "ऑक्सफोर्ड"(लण्डन)  के लिए काम करते थे... मेरे पास इनका आना-जाना प्रायः बना रहता था... ये मुझे मिले तो रामा जी के ज़रिए थे किन्तु "क्लोज"(निकट) मेरे अधिक हो गए थे... हम लोग प्रायः सप्ताहांत में रात्रिभोज पर मिलते थे... उन्हें हमारे आश्रम का भोजन बहुत पसन्द था... उन लोगों ने मुझसे दुनिया भर की बातें की किन्तु एक बात जो रेखा जी की मुझे बार बार याद आती है वो थी "स्वर्ण  मंदिर" अमृतसर में पालकी जी की सवारी का वृत्तांत... और क्या ही संयोग था कि जब मैं पहली बार अमृतसर पहुंचा तो भोर में स्वर्ण मंदिर पहुंच गया... और यह ठीक वह समय था जब "पालकी जी"(गुरुद्वारे में ग्रन्थ साहब को पालकी की सवारी में लाते हैं) का दर्शन हो रहा था... मैं अपने सौभाग्य पर जितना प्रसन्न था उससे कहीं अधिक रेखा जी की स्मृति में था... सच एक अद्भुत पल था जीवन मे जब मैं स्वयम को सम्प्रदाय-विहीन मात्र मनुष्य अनुभव कर पा रहा था... और अपनी ही आँखों मे रेखा-हरतेज जी आँखों को घुला पा रहा था..!

दिल्ली में मेरे लिए एक और तोहफ़ा था... जे•सी• यानी "जॉन सरफ़राज़ चौधरी"... भारत के प्रतिष्ठित "सेंट स्टीफंस कॉलेज" के छात्र और "क्विन्स इंग्लिश उच्चारण" करने वाले जॉन को भारत की मिली जुली संस्कृति से बहुत लगाव है... वो मुझे मिलते ही मुझे "गुरु जी" कहने लगे और आज तक यही नाम था मेरा उनके लिए... वो बहुत स्नेही व्यक्ति थे लोगों से प्यार करने वाले... कवि नीरज की कथनी "आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ" के सिद्धांत पर जीने वाले  जे•सी• को पुराने गीतों और फिल्मों का दीवानापन था... मैंने अपने अलावा किसी अन्य को सिनेमा को ले कर इतना "नोस्टाल्जिया" नहीं देखा जितना जॉन में था... मैं अब भी याद कर सकता हूँ वो शायद 31 दिसम्बर 2013 की रात थी जब मैं और जे•सी• पूरी रात "निरूपा रॉय" और "शिला रामानी" जैसी अदृश्य अभिनेत्रियों के अभिनय और ग्लैमर पर बात करते हुए सुबह कर गए... सच वो कोहरा, वो बातें और जॉन (जो मुझसे 30 साल बड़े होंगे) की फिल्मी कहानियां मुझे आज एक "फेरी टेल" लगती हैं... मैं अपने जीवन मे केवल एक बार चर्च में गया हूँ वो भी जे•सी• के साथ क्रिसमस की रात... बहुत सुंदर था सब कुछ ( यद्द्पि तर्कहीन बातें होती हैं चर्च में पर क्या करें विश्वास और तर्क एक साथ जी भी तो नहीं सकते)... मैंने ईसाइयत के आवरण में भी अपने जैसे ही लोगों की भीड़ देखी जो बस खुश हो कर उत्सव मनाने में लगे थे... धन्यवाद जे•सी•... वैसे उन्हें एक और बात के लिए मैं धन्यवाद दूंगा की उन्होंने ही मेरे जीवन मे "चरागे-दैर-अवार्ड" की शुरू करने का अवसर बनाया  और उस्ताद इक़बाल अहमद को काशी ले आए जहाँ हमने एक अवार्ड मुहब्बत के नाम शुरू किया 2011 में "सुलेमान आसिफ़" और "इक़बाल साहब" से...! फिर इसी कड़ी में आगे के सालों में मुझे सच्चा-इंसान "फारुख शेख़" मिला जिसकी दोस्ती, दिलरूबा-क़िरदार और नेकदिली मेरे लिए उम्र भर की सौगात बन गई है... फारुख साहब मुझसे मिलने के साल भर बाद ही गुज़र गए... पर इन थोड़े से दिनों में उन्होंने "इन्सानी-जज़्बों" का ऐसा चेहरा मुझे दिखाया कि मैं उनका एहसानमंद हो गया।.. पर केवल फारुख साहब ही नहीं मुसलमान और मुम्बई दोनों को ले कर मेरी सोच बदलने में जिस महान-महिला का सबसे बड़ा योगदान रहा है मैं उस प्यारी सी "रिज़वाना मर्चेंट" को अगर भूल जाऊं तो काफ़िर कहलाऊँ... सच गज़ब की जिंदादिली और मासूमियत से लबरेज़ लेकिन शुद्ध व्यवसाई "रिज़वाना एस मर्चेंट" मुंबई में "इवेंट मैनेजमेंट" देखती हैं... एक सफल अभिनेत्री "किश्वर" की माँ और उसके आकर्षक पति और गायक अभिनेता "सुयश" की की सासु माँ रिज़वाना जी मे दोस्ती निभाने और लोगों की मदद करने की ज़बरदस्त काबिलियत है... लगातार यात्राओं में रहने वाली रिज़वाना जी से मुझे "प्लेटोनिक लव" भी है शायद... यूँ तो वो मुझसे दशकों पहले पैदा हुईं पर "ऊर्जा" में मुझसे दशकों बाद कि जन्मी प्रतीत होती हैं... मेरे मुंबई जाने पर उन्होंने ही मुझे सबसे अधिक प्रेम और आथित्य दिया... और सबसे बढ़ कर उन्होंने जो उपहार मेरे जीवन को दिया वो है "भारत रत्न लता मंगेश्कर" से सबंध जिसके लिए मैं रिज़वाना जी को किसी फ़रिश्ते की तरह याद रखता हूँ...!

सन 2007 से 2015 तक मैंने बहुत यात्राएं की और जीवन के कई रंग देखे... यद्धपि उन सालों में गुजरात के दंगों ने नया राजनीतिक चेहरा बना लिया था... भ्र्ष्टाचार की नाव पर चढ़ कर नई राजनीतिक सवारी दिल्ली आ रही थी...कुछ नए नए ढंग से "इलेक्ट्रॉनिक-मीडिया" लोगों को गुस्सा करना और इंसान की जगह "भीड़ बनना" सिखा रही थी... तभी "निर्भया कांड" और उसका शोर भी उभरा... हर तरफ एक "हंगामा बरपा" था... और उन्ही हंगामों में एक ऐसा इंसान मेरे जीवन मे आया जिसने "मज़हब" को ले कर मेरी सोच ही बदल दी...!

किसी किसी व्यक्ति को व्यक्त कर पाना लगभग असंभव होता है क्यों कि वह आपके वर्तमान में रहता है और वर्तमान प्रवाहमान है... बहता रहता है..और ऐसा ही एक व्यक्ति है मेरे जीवन मे जो कितने ही चेहरे बदलता हुआ आज मेरे "पुत्र" के रूप में मेरा वर्तमान है..!

मैं उस १३ फ़रवरी २०१३ की रात को जब अमित श्रीवास्तव के बड़े भाई की शादी में जाने को निकल रहा था... तब हर रोज़ की तरह एक वाहन की तलाश भी थी.. और इस दिन मेरा वाहन ले कर  "फ़हीम उस्मानी" को आना था... थोड़ा विलम्ब से फ़हीम आया पर अकेला नहीं एक गोरे से बड़ी बड़ी आंखों वाले अपनी मस्ती में डूबे लड़के के साथ... जिसे ट्रिपलिंग पर बिठा के हमे उस विवाह स्थल तक जाना था जो कोई ४-५ किलोमीटर की दूरी पर था... रास्ते मे एक्सीडेंट भी होते होते बचा... पर हम लोग पहुँच गए शादी के स्थान तक... वहाँ मेरी सदरी में एक गुलाब भी लगा दिया गया था... मैं उस रात दो ऐसे मित्रों के साथ बैठा था जो संयोग से आज संसार मे नहीं है... "राय चैतन्य" और "डॉ• लक्ष्मण दास"... शादियों में मेरा कितना रुझान है ये सब जानते हैं इस लिए थोड़ी देर में ऊब कर मैं देश के हालात पर चर्चा करने लगा... अचानक उस नवजवान ने मुझसे पूछा कि -- "मैं किस पार्टी में जाऊं की मैं देश की सेवा कर सकूं?".... मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में किसी इस उम्र के (20 वर्ष) नौजवान को देश सेवा के लिए इतना पवित्र-उत्साह दिखाते नहीं देखा था... मैं थोड़ा चौंक गया... क्यों कि कोई भी राजनैतिक-पार्टी तो इस "कैटगरी" में आती नहीं है... अतः उसी रात मैंने सोचा कि मैं ख़ुद एक मंच बनाऊंगा जो ऐसे नवयुवकों को देश-सेवा का अवसर दे सके... घर लौटते हुए १४ फरवरी यानी "गुलाबों का दिन" (रोज़ डे) हो चुका था तो मैंने उस देशभक्त को अपने सीने पे टंका गुलाब तोहफ़े में दे दिया... रात भर मंथन के बाद मैंने सुबह उसे फिर बुलाया और उससे पूछा --" तुम्हारे जीवन का मक़सद क्या है?"... उसने तपाक से उत्तर दिया -- "ख़िदमते-ख़ल्क"! यानी संसार की सेवा!... तब मैंने कहा यदि तुम चाहो तो मैं एक लोकतांत्रिक-जागृति के लिए मंच बनाना चाहता हूं वह बना दूँ?... उसकी स्वीकृति पर मैंने एक नए सामाजिक मंच "अक् जागृत मतदाता मंच" की स्थापना की जिसके संरक्षक श्री दीपक मधोक,राय चैतन्य, अध्यक्ष डॉ विश्वनाथ पाण्डे जी और सचिव मोहित अग्रवाल जी को बनाया गया... उस नौजवान को "संयुक्त सचिव" का पद दिया गया "अमित श्रीवास्तव" के साथ...।

एक वर्ष् से कम समय में उस नौजवान की मेहनत और लगन से मंच काफी लोकप्रिय हो गया... मंच ने अनेक रैलियां, सभाएं और स्वास्थ्य शिविर लगा लिये... फिर वह भी एक दिन आया जब चुनावी-प्रक्रिया से गुज़र कर उस नौजवान ने अक् द्वारा "आसिफ़ साहब" को समर्पित दिये जाने वाले "चरित्र निर्माण पुरस्कार" "कैरेक्टर ट्री" भी हाँसिल किया... जिसमें पुरस्कार के रूप में १५हज़ार रुपये भी मिले थे... मुझे यह भी सोच कर खुशी होती है कि वो उन पैसों से जवानी के ऐश न कर के अपनी "अम्मी" के लिये "वाशिंग मशीन"  ले आया ताकी कपड़े धोने में कष्ट न हो में... और तो और जब उसके साथी विजेता "विशाल वर्मा" ने अपने "उपनाम" का त्याग कर के "भारत" लगाने की घोषणा की तब सबसे पहले उसका साथ देने यही नौजवान आगे बढ़ा और अपने "खान" उपनाम को हटा कर "भारत" उपनाम लगा लिया... यद्यपि इस एक परिवर्तन से उसे बहुत कष्ट उठाने पड़े... परिवार,समाज और मित्रमण्डली में उसके इस निर्णय पर प्रश्न उठाए गएपर वो देशभक्ति में डूबा मुसलमान "भारत छोड़ने" पर राज़ी न हुआ...।

एक कट्टर-मुस्लिम-परवरिश के बावजूद इस शख़्स में सत्य के अनुसंधान की अजब ललक दिखी मुझे... वो सभी सम्प्रदायों का सम्मान करते हुए अपने मज़हब में अगाध आस्था रखता है... वो अल्लाह को एक मात्र पूज्यनीय मानते हुए भी यह मानता है कि यह उसकी आस्था है न कि पूरे संसार की और संसार में सबकी आस्थाओं को सम्मान पाने का हक़ है... तभी तो मेरे जन्मदिन पर वो मेरे लिए काले संगेमरमर का अतिसुंदर कृष्ण-विग्रह उपहार में ले आया... एक ख़ुदा-परस्त के हाथों बुत का तोहफ़ा पा कर उसके बड़पन्न और प्रेम का सहज अंदाज़ लग सकता था... वो मूर्ति अब भी मेरे हृदय के सबसे निकट है..!

विद्यालय की बहुत कम शिक्षा के बाद भी उसे पढ़ने और लिखने का बहुत शौक़ और समझ है... उसमे सीखते रहने की ज़बरदस्त काबिलियत है... तभी तो वो शानदार एक्टर भी बन सका मेरी "लघु फ़िल्मो" "चिकन दोस्त" और "कनेक्शन" में...साथ ही प्रधानमंत्री के मिशन में उसे काशी का स्वच्छता दूत भी बनाया गया जिसे उसने विगत ५वर्षों से बहुत समर्पण से जिया है... बाढ़ पीड़ितों की सहायता हो या रक्तदान शिविर, भूखे को भोजन हो या कन्याओं का विवाह, मजारों के उर्स हों या मन्दिरों के श्रृंगार,दीपावली के दीप जलाने हों या ईद की नमाज़ पढ़नी हो वो एक शख़्स हर जगह एक से प्रेम और समर्पण के साथ नज़र आता है... तभी तो "भारत जी" "भारत जी" पुकारा जाता है... मैंने उसमे अपने भीतर के सामाजिक मनुष्य की अभिव्यक्ति पाई है... उनमे बहुत कुछ मेरे जैसा ही आज़ादी, मित्रता, सहयोग और शुक्रिया... इसी कारण मैंने सब रिश्तों से उठ कर उसे अपना "दत्तक पुत्र" घोषित किया है... और वो सचमुच इस योग्य है कि उसे पुत्र माना जाए भले ही मैं उसके पिता की योग्यता न रखता हूँ शायद!

उसे गुस्सा जल्दी आता है और कुछ अधिक ही... शायद इस लिए क्यों कि उसे एक सहज और सच्चा संसार चाहिए जो वास्तव में बस किताबों में मिलता है... मग़र इस एक जज़्बाती कमज़ोरी के अलावा उसमे तमाम अच्छाईयां हैं... सबसे बड़ी अच्छाई तो है "अपने ज़रूरत की चीज़ें किसी अन्य ज़रुरतमंद को चुपचाप दे देना..!"... और हाँ! उसे "टिफ़िन" से कुछ अधिक ही लगाव है... कोई कहीं भी यात्रा के निकल रहा हो ख़ुदा का ये बंदा "टिफ़िन" में सुस्वादु नाश्ता रख कर हाथ मे थमा देगा और ऐसे खुश हो जाएगा जैसे कोई माँ अपने बच्चे को खिला कर खुश हो जाती है...!

वास्तव में ये नौजवान स्वामी विवेकानंद के उस स्वप्न का यथार्थ-विग्रह सा है जिसमे वो सन्देश देते हैं कि "भारत को एक इस्लामिक शरीर मे सनातनी आत्मा का संयोग बनना होगा!" ... और क्या संयोग है ६ दिसम्बर १९९२ को जब देश एक अजब से साम्प्रदयिक-द्वेष की गवाह बना था... उस दिन उसी वर्ष् में इस नौजवान "भारत" का जन्म हुआ... मैं अपने पूरे हृदय से प्रार्थना करता हूँ कि वह सदा यूँ ही अपने उत्तरदायित्व को उठाता रहे... और भारत माता की निश्छल सेवा करता रहे... बिना किसी भय या लोभ के मनुष्य का सहयोगी बनता रहे... ताकी समय एक दिन इतिहास में जा कर उद्घोष कर सके कि-- "बेटा हो तो साक़िब भारत जैसा हो..!"

इन वर्षों में मैंने जान लिया कि हम एक ऐसे देश मे रहते हैं जो सूरज की तरह हर आँख खोलने वाले का सबेरा बनता रहा है... ये वो देश है जहाँ देवता आए तो मनुष्य भी आए और साथ मे आए दैत्य और राक्षस... ऋषियों ने केवल देवताओं को नहीं मनुष्य और दैत्यों को भी जन्म दिया... इस देश ने आचरण की भिन्नता और उसके प्रभाव पर निष्पक्ष और निर्भय चर्चा की किन्तु किसी आचरण विशेष को थोप कर एक सा नीरस संसार बनाने का कोई कुत्सित प्रयोग सफल नहीं होने दिया... जब पश्चिम लोकतंत्र और जीव-वाद का ककहरा भी नहीं जानता था तब भारत उद्घोषणा करता था की "एक ही सत्य जिसकी अनेक विद्वान अनेक दृष्टिकोण से व्याख्या करते हैं, सब स्वीकार है!"... यह लोकतंत्र का आधार है और आधार है जीव-वाद का... यह बहुमत का देश है जहाँ "ईश्वर भी एक" नहीं रह सकता... उसे भी "अनेक रूप" धरने पड़ते हैं... जहाँ गंगाजल को उपर धार से पीने पर जूठा मान लेने वाले वैष्णव शराब और मांस से देवी को मनाने वाले शाक्तयों के साथ युगों से रहते हैं... यह भारत भूमि वस्तुतः एक ऐसी गंगा है जहाँ आर्य,द्रविण,बौद्ध, मुंडा,हुन,शाक्य,राजपूत,चितपावन, मंगोल,यवन,यहूद,अरबी,मुग़ल,पारसी,बलूच,पठानी,ईसाई, मुसलमान,बहाई,सिख इत्यादि अलग अलग पहाड़ी नदियों से आ कर समाते गए और यह पवित्रता की विराट नदी बन कर लहराती हुई अनेक "पापियों को मुक्त" करती रही है...

" सं गच्छध्वम् सं वदध्वम्"(अर्थात-सब साथ मे चलें साथ मे बोलें/ तातपर्य- सबका साथ ही गति देता है/ ऋग्वेद- 10.181.2)... का उद्घोष कर निरंतर गतिशील रहने वाले देश मे पिछली २ सहस्राब्दीयों में संकीर्ण-विचारधारा ने अपना स्थान बना लिया है जो अत्यंत खतरनाक है... क्यों कि भारत केवल एक देश नहीं मनुष्य के मनुष्य होने की अंतिम संभावना है... दुनिया के बाकी देश जहाँ एक भूगोल से शुरू हो कर इतिहास पर समाप्त हो जाते हैं वहीं यह महान देश "भूखंड" से शुरू हो कर "अखंड" की यात्रा करता है... यह अद्भुत है और प्रणम्य भी...!

मैं साक़िब भारत के घर मे बिछे दस्तरख्वान के सामने अपना रोज़ा खोलता हूँ... पानी की एक घूँट आज किसी अमृत से बढ़ कर लग रही है... यह पल मुझे एहसास दिला रहा है प्यास और तृप्ति के अखण्ड-सम्बंध की... बंदे और ख़ुदा में यही रिश्ता है... बंदा प्यास है और ख़ुदा पानी की वह एक घूँट जिसमे न कोई रंग है न आकर न स्वाद ... केवल तृप्ति ही तृप्ति... शायद रेगिस्तान में "सनातनधर्म" ऐसे ही व्याखित हुआ होगा... और इससे बेहतर हो भी क्या सकता था... मैं देख सकता हूँ मेरी इस तृप्ति में कितनी और तृप्तियाँ छिपी थीं... अफ़सर के भीतर देश के सौहार्द की तृप्ति... साक़िब भारत के भीतर मेरे अनुराग की तृप्ति और दूर कहीं मदर हलीमा स्कूल में टँगी तस्वीर में टंके स्व• आसिफ़ साहब की आंखों से छलकती एक तृप्ति इस बात की कि -- "मज़हब में मुहब्बत हो की न हो... मुहब्बत ख़ुद एक मज़हब ज़रूर है!"

8 दिसम्बर 2019
ओमा The अक्©

(रमज़ान के महीने में इसी साल देश के विकृति होते साम्प्रदायिक ताने बाने पर लिखा स्मृति पत्र जिसे दिसम्बर में अंतिम रूप दिया मैंने)🙏🙏

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