एकला चलो रे... (बुद्ध और सिकंदर) - ओमा द अक्

एकला चलो रे...

(बुद्ध और सिकंदर)
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"उत्तर दिशा के क्षितिज पर गोधूलि की रक्तिम आभा शनै-शनै धूमिल हो रही थी... काले- सँवलाये-आकाश में अटल-ध्रुव प्रकट होने को था... उस अटल-यथार्थ का उद्घोष करने... जो संसार मे आने वाले प्रत्येक जीव के समक्ष एक न एक दिन आता है-- "मरण"-- सम्प्रति! इसी अटल-ध्रुव से शीश-जोड़े तथागत लेटे हुए थे... सांसारिक-लोगों के लिए यूँ लेटना अशुभ है पर सन्यासी को तो यूँही मंगल-बोध होता है... निकट में मुड़-मुंडाए-भिक्खुओं का समूह निःशब्द देख रहा था... उस गौतम के परिनिर्वाण को जो संसार के विज्ञान का महानतम-उद्घोषक है... उस बुद्ध को जिसके पदचिह्न दुःख से मुक्ति की ओर लिए जाते हैं... आज वह स्वयम जा रहा है... किन्तु कैसा शांत और संयमित.. मानो कोई मनचाही यात्रा पर निकल रहा हो... अहोभाग्य! क्या मृत्यु इतनी सरल और सुंदर भी होती है...?

यूनान की एक छोटी सी सल्तनत "मकदूनिया" में आज शाम बड़ी रंगीली थी... चाँद अपने पूरे शबाब पर था... जो अपनी चाँदनी के जाल फेंक कर आसमान के तमाम-सितारों को गुमशुदा किये जा रहा था... बस दूर एक सितारा उत्तर में जस का तस न मालूम किस पैग़ाम-मुस्तकबिल के साथ खमोश खड़ा था.. उधर चमचमाते महल में जश्न का माहौल था.. सिपहसालार "अतलस" की हसीन-कमसिन भतीजी "क्लियोपेट्रा" की शादी... बूढ़े-काने मग़र बलवान सुल्तान "फिलिप" के साथ हुई थी... शराब के नशे में धुत "अतलस" ने एलान किया-- "अब मिलेगा मकदूनिया को उसका असली वलीअहद(युवराज)... यह सुनते ही फिलिप और ओलम्पियस कि संतान भड़क उठा.. और हाथ से मदिरा के प्याले को पटक कर बोल उठा-- "हट शैतान"... और ऐसा कहते हुए पाँव पटक कर महफ़िल से  बाहर निकल गया वो नौजवान जिसे आगे दुनिया "सिकन्दरे-आज़म" कह कर बुलाने वाली थी...!

देवताओं की भूमि हिमालय से निकलते रास्ते पर बसा था एक छोटा सा राज्य "कपिलवस्तु"... उस शाक्य-गणराज्य के प्रधान थे "सुद्धोधन"... बैसाख के तपते हुए मौसम में उनकी पत्नी माया... लुम्बनी-ग्राम में प्रसव-वेदना से पीड़ित हुए जा रही थीं... नीरव-शांत आकाश में सूर्य अपनी पूरी-कांति से दमकता हुआ किसी क्रांति का आह्वान करने में लगा हुआ था... पवन उष्ण किन्तु प्रभावशाली था... सब भूमि को पीताम्बर में ढकने का प्रयास करता हुआ... भूमि ग्रीष्म का ताप शांत भाव से पिये जा रही थी मानो वह शोक को रसीला करनी की कला सीख रही हो... नदियों में जल मौन प्रवाहित हुए जा रहा था कि उसको बस निरंतरता की साध हो... ऐसे विरल-तत्व-संयोजन के मध्य एक विशुद्ध-चेतना ने किलकारी ली... और माया के नेत्र आवाक रह गए... वात्सल्यमयी-वक्ष पर नवजात को दुलराते हुए... वह पुकार उठी-- "सिद्धार्थ"..!

"सुनो बच्चे! इधर आओ! मेरे पास!"
बाग में खेलते नन्हे सिकन्दर को उस वक़्त दुनिया के सबसे बड़े दानिशवर-उस्ताद ने  पुकारा... पर बचपन को उस्तादों और दानिशवरों से क्या मतलब... उनको तो तितलियों के परों के बदलते रंग, फूलों के भीनी महक और आसमान के जादू ही लुभाते हैं... दरअस्ल हर  बच्चा अपने आँगन का सिकन्दर होता है... फिर ये तो था ही सिकंदर सो उसने तपाक से कहा- "हम क्यों आएं तुम्हारे पास? हम तो तुम्हे जानते नहीं!"... तीस पर अधेड़-फलसफी ने हँसी में अपने दरकते-गरूर को छिपाते हुए कहा-- "अरे नादान! हम उस्तादों के उस्ताद अरस्तू हैं! और तू हमे ही नहीं जानता... जबकी हम तुझे जानते हैं तू फिलिप और ओलम्पियस कि औलाद सिकन्दर है!... यह सुन कर पैरों के आसमां नापने वाली उम्र का लड़का बड़े तेवर से कह उठा-- "सुनो! हम बादशाह हैं! और बादशाहों को सभी जानते हैं... जैसे तुम हमे जानते हो... लेकिन बादशाह सबको नहीं जानते... जैसे मैं तुम्हे नहीं जानता...!" ऐसा कह कर जब वो खिलखिलाया तो अधेड़-अरस्तू को जवानी मिल गई... हाँ ये वही नन्हा बीज है जिसे एक दिन बरगद बन कर तमाम आलम में छा जाना है... और अरस्तू को सबसे बड़े उस्ताद के तौर पर शोहरत दिलाना है... दरअस्ल! अरस्तू मग़रिब(पश्चिम) के वाहिद बेदार-ज़हन(अकेला-दार्शनिक) "सुकरात" के ज़हीन-शागिर्द (समझदार-शिष्य) अफलातून(प्लेटो) का दाना-शागिर्द (बुद्धोजीवि-शिष्य) था... उसने बहुत से इदारों(संस्थाओं) को पैदा किया... ता'लीम को एक ऐसी शक्ल दी जिसमे दीन से अधिक दुनिया को तवज्जो दी जाए... गो ये आज़ादी-पसन्द सुकरात के फलसफे के एकदम ख़िलाफ़ था... और अफलातून के "काबिलियत-पसन्दी" से भी अलग था... फिर भी अरस्तू ही आने वाले वक़्तों में सबसे मक़बूलो-मशहूर होने वाला था (क्यों कि संसार सुविधाओं को ही चुनता है)...!

"असहमत-असहमत"... शाक्यों के 'संघ' में यह पुकार कतिपय प्रत्येक-दिशा से गूँज उठी... मध्य में खड़ा नौजवान-सिद्धार्थ इस-संघीय-असहमति से हतप्रभ रह गया... वह राजा-शुद्धोदन का पुत्र और राजकुमार था... उसके पिता ने उसे सब प्रकार के सुखोपभोग के मध्य पाला था... वह नहीं चाहते थे कि उसकी जन्मकुंडली में लिखी बातें सच सिद्ध हों... जिसके अनुसार सिद्धार्थ कभी भी  विरक्त-सन्यासी बन सकता है... अतः राजा ने उसके ऐश्वर्य में कोई कमी न छोड़ी... वस्तुतः उस पर पीड़ा या कष्ट की अब तक कोई छाया न पड़ी थी... समय बढ़ते बढ़ते उसे लगने लगा था... कि संसार उसके अनुसार ही चलता है... अतः आज का विरोध उसे भयग्रस्त भी करने लगा... क्यों कि इस मतभेद का दण्ड तब के विधान के अनुसार मृत्यु या देशनिकाला ही था.. पर राजा के पुत्र को दण्ड देना भी घातक हो सकता था... अतः सिद्धार्थ ने स्वयम ही निर्णय सुनाया-- "शाक्य-क्षत्रिय-संघ के नियमानुसार मैं स्वयम ही देश छोड़ने का निर्णय स्वीकार करता हूँ.. आपको कोई कष्ट न हो इस कारण मैं सन्यास धारण कर के चुपचाप चला जाऊंगा..!"

सिर्फ़ सोलह की कमसिनी में... सिंकंदर "बाईजेण्टीयम" के ख़िलाफ़ सिपहसालार(सेनापति) बन कर लड़ा... वह अभी अभी अरस्तू के यहाँ से पढ़-लिख कर लौटा था... ट्रेसीयन के इंकलाब को कुचल कर... उसने यूनान को नई सरहदें दीं...और दिया एक नया शहर "अलेक्जेंड्रिया"... लेकिन इन सब और दूसरे तमाम फ़तह के झण्डे गाड़ने के बावज़ूद सिंकदर फिलिप की गद्दी से दूर हटता जा रहा था... नई बीवी और दूसरे बेटे की मोहब्बत  के नशे में चूर फिलिप ने सिंकंदर को उसकी माँ समेत मुल्क से बाहर कर दिया... सिंकदर अपने मामा के पास कुछ वक़्त को रहा फिर मकदूनिया वापस आया... जहाँ फिलिप का क़त्ल कर दिया गया( या शायद यह अरस्तू और सिकन्दर की चाल थी क्यों कि हत्यारे की हत्या वहीं पर दौड़ा कर सिकन्दर के विश्वासपात्र ने कर दी)....और अब तख़्त पर बैठा दुनिया का पहला तानाशाह-सिकन्दर...!

दुधमुंहे राहुल को छाती से लगाए गहरी निद्रा में मग्न रूपवती-पत्नी यशोधरा को खिड़की पर बैठे-बैठे सिद्धार्थ निहार रहा था... उसके मन मे वासना के अंकुर फूट फूट कर उस निशा की स्मृति जगा रहे थे... जब उसने सर्वप्रथम इस देह को निर्वस्त्र निहारा था... उसके अधरों का रसपान करते हुए... उसके स्तनों का मर्दन करते... कैसे उसने इसी देह को अजगर की भाँति अपने आलिंगन में बद्ध कर लिया था... सिद्धार्थ अपने देह पर उन नाखूनों की चुभन अब तक अनुभव कर सकता था जो उसे पहले-पहल यशोधरा से रतिक्रिया करते हुए मिले थे... वह उसके कटि, नितंब,भग और जंघा के स्मरण से व्याकुल हो उसे जगाने ही वाला था कि उसके अंतस में जाग उठा वह भय जो संघ से निकाले जाने के पश्चात उसने पृथक-पृथक अवसरों पर पाया... कभी रुग्ण को देख व्याधि का भय... कभी वृद्ध को देख आयु का भय... कभी मृतक को देख विश्व से "निकल जाने" का भय... ओह! यह संघ का अपमान, तिरस्कार इतना भयावह निकला... या जीवन की अस्थिरता आज नग्न समक्ष खड़ी थीं.. वैसे ही नग्न जैसे यशोधरा थी उस मधुरयामिनी में और स्वयम सिद्धार्थ भी तो हुआ था नग्न...!

होठों से होंठ अलग करते हुए सिकन्दर 'हेफिस्टन' की गहरी नीली आँखों मे झाँक रहा था... उसे यह आँखें सिर्फ़ आठ-नौ साल की उम्र में  मिली थीं... वहीं उस्ताद अरस्तू के मकतब में... वहीं जहाँ सिकन्दर हर लड़के को एक दाँव में पटक देता था... पर इस लड़के(हेफिस्टन) के हाथ सिकन्दर के बदन को छूते ही अजीब सी सिहरन से भर देते थे... और वो ज़मीन पर पटखनी खा जाता... हेफिस्टन उसका सबसे गहरा साथी है... मोहब्बत की पाकीज़ा-गहराई हवस से कहीं ऊपर उठ कर दोनों को एक करती थी... मग़र फिर भी दोनों के जिस्म की आग भी एक-दूसरे के जिस्म के पसीने से ही ठंडी होती थी... आज सिकन्दर बहुत खुश था... उसकी बादशाहत शुरू हो चुकी थी... ऐसे में सिवाय हेफिस्टन के और कौन था जिसके गले लग कर वो रोते हुए अपने मुस्तकबिल के ख़ाब सुनता... हेफिस्टन ने सब सुना और बस इतना ही बोल पाया था कि-- "सिकन्दर! मेरे प्यार ! जीत अच्छी है! पर जीत का नशा बहुत बुरा होता है!... और तब तक सिकन्दर ने उसे बिस्तर पर पटक दिया... जैसे कोई भूखा शेर किसी बारहसिंगे को पटक देता है... बाहर महल के चौबारे में सिकन्दर के वफादार.. तोहफ़े में मिले कपड़े और ज़ेवर पहन रहे थे... भीतर रेशमी बिस्तर पर  हेफिस्टन के साथ दुनिया का सबसे बहादुर-सिपहसालार पड़ा था बेबस और नंगा...!

न्याय और सांख्य दर्शन को कई बार पढ़ने के पश्चात सिद्धार्थ अब विपस्सना में डूबने लगा था... वह घण्टो-दिनों-महीनों वनप्रांतों में विचरण करता रहता... और सोचता रहता सत्य और असत्य के संदर्भ में... परन्तु प्रायः नयन मूंदते ही समक्ष आ खड़ी होती यशोधरा... जो  सो कर अभी अभी उठी है तथा कक्ष में सिद्धार्थ को न पा कर सम्पूर्ण महल में दौड़ रही है... उसकी निरंतर फड़कती बायीं-आँख उसे अशुभ सन्देश दे रही हैं... सिद्धार्थ कई दिनों से उदास थे... अवश्य कहीं चले गए... कहीं आत्महत्या.. नहीं नहीं ऐसा नही हो सकता... वीर-शाक्य यह नहीं कर सकते... वह अवश्य वनों में होंगे... ओह! उनका चाचेरा भाई आंनद भी नहीं है... संग होगा... हाय हाय विधाता...! यह कह कर उर से राहुल को चिमटाए सीत्कार करती वियोगिनी... और कभी कभी शाक्य-संघ के साथियों के अभद्र भाषण और विवाद की अनुगूँज पागल करने को आ जाती... यह सब क्या हो रहा... इस यात्रा के मध्य उसे पाँच-संगी-तपस्वी और मिल गए थे... मानो पंचतत्व के मध्य आत्मा हो सिद्धार्थ... किन्तु भूख-प्यास के कठिन व्रत से देह कंकाल बनती जा रही थी... और एक दिन तो सीमा टूटने नही सहनशीलता की... उदर में क्षुदा पित्त की अग्नि धधका रही थी... मस्तक घूम-घूम जाता था... नेत्र खुल के मूंद जाते और मूंद के खुल जाते... मृत्यु के दूत समीप ही कहीं नृत्य करते आभाष दे रहे थे... तभी पालकी रोक कर उतरी "सुजाता"... एक रमणी... हाथ मे रजत-पात्र लिए... पायस(खीर) भरे पात्र को ले कर जीर्ण-योगी के समक्ष नतमस्तक हो निवेदनयुक्त-देशना कर बैठी-- "योगी! वीणा के तार इतने न ढिलो की स्वर ही खो जाएँ... और इतने न कसो कि टूट ही जाएँ..!"... ओह! धन्य देवी धन्य! मिल गया मार्ग! मज्झिम मार्ग!... ऐसा कहते हुए सिद्धार्थ ने पायस-पात्र थामा और ग्रहण कर लिया... सुजाता एक पात्र भोज मात्र से "कालातीत" हो गई थी... यही उस क्षुब्ध-दुर्बल योगी के तृप्त-हृदय के आशीष का प्रभाव था... क्यों कि आज ही सुजाता की करुणा से संतृप्त-योगी पूर्ण-चन्द्र की छाया में  बद्ध सिद्धार्थ से तथागत बुद्ध में परिवर्तित हो गया था..!

यूनान से घोड़े दौड़ाते सिंकंदर के पीछे हेफिस्टन समेत हज़ारों नौजवान लड़ाके थे... जिनकी ताकत और हिम्मत था ये कोई पच्चीस-छब्बीस बरस का सिकन्दर अज़ीम... इस छोटी सी मग़र खतरनाक सैनिक-टुकड़ी ने उस वक़्त (अरस्तू ज्ञान के अनुसार) आधी दुनिया जीत चुकी थी...बैक्ट्रिया, मिस्र,सीरिया,फिनीशिया, जुदेआ,गाझा,मोसोपेटामिया,फिनीशिया, और ईरान पर जीत और तबाही के बाद वो हिंदुकुश की पहाड़ियों से उतर कर तक्षशिला पहुंचा... वहां के राजा "आम्भी" ने सिकन्दर के संग दोस्ती की और इनाम में तीस-घोड़े और एक हज़ार सोने के बुत तोहफ़े में पाए... आम्भी ने सिंकदर को हिन्द पर फ़तह का रास्ता दे ही दिया था (वैसे मगध जीत पाना उसके लिए नामुमकिन ही था)... मग़र उस रास्ते मे एक बुलंद दीवार थी "पोरस" के नाम की... जो पँजाब का राजा था... और किसी भी क़ीमत पर अपनी आज़ादी बेचने को तैयार न होता था... चुनाचे मुकाबिला हुआ... और खूब हुआ... पहली जंग में सिंकंदर हारते हारते बचा... दूसरी में उसने अपनी शतरंजी-चाल से पोरस को फंसा लिया... और सिकन्दर ने पोरस को अपना दोस्त बना कर थोड़ा आगे बढ़ा... मग़र अबकी बार बात थोड़ी बिगड़ गई... सेना में हिंदुस्तानी मौसम ने कहिलियत भर दी... या शायद इस ज़मीन ने उनके खून पीने के ज़ज़्बे को कम कर दिया... और वो पुकार उठे -- "हमे वापस जाना है... हमे अपने घर लौटना है...हम युद्ध नहीं कर सकते!"... हताश सिकन्दर ने बहुत रोका पर वो न रुके... सिपाहियों के बिग़ैर एक सिपहसालार की क्या हैसियत... मज़बूरन उसने लौटने का इरादा किया... और लश्कर सिकन्दर के ख़ाब को घोड़ों की टापों से रौंदता हुआ हिन्द को छोड़ बेबीलोन की तरफ़ मुड़ गया था...!

"कपिलवस्तु"(नेपाल) से "गया"(बिहार)... "गया" से "सारनाथ"(वाराणसी/उप्र) तथा सारनाथ से पुनः मगध(बिहार)... कुल इतनी ही यात्रा थी सिद्धार्थ गौतम बुद्ध की... बहुत छोटी... एक देश भर भी नही... परन्तु उनके तथ्यों और देशनाओं से भारत अतिशिघ्र ही गुंजायमान होने लगा... एक छोटे से शाक्य-संघ का निष्काषित-युवा मात्र चालीसवें वर्ष् में प्रवेश करते करते अपना स्वयम का एक "संघ" निर्मित कर पाने में सफल होता है... तथा एक छोटे राज्य से बहिष्कृत राजकुमार आज मगध-सम्राट बिम्बसार को अपने पाँव में बैठा कर "निर्वित्ति" के मार्ग समझा रहा था -- "यदि कोई व्यक्ति अपने किसी सिद्धांत का बन्दी बन जाए... तब उसकी स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है...! तथ्य सिद्धांत में नहीं अनुभव में जीवित होते हैं...चार आर्य सत्य हैं केवल - दुःख है, दुःख सकारण है, दुःख सांत है तथा दुःख को नष्ट करने का मार्ग है"... "कौन सा मार्ग भगवान्?" ... हतप्रभ सम्राट ने पूछा... बुद्ध ने प्रतिउत्तर दिया- "बुद्ध की शरण... धर्म की शरण... संघ की शरण..!"....भारतीय उपमहाद्वीप का सर्वशक्तिमान-सम्राट एक अर्धनग्न-भिक्षुक के समक्ष दण्डवत था... जनता समूह के समूह आ कर संघ में जुड़ रही थी... सामान्य प्रवृत्ति-मार्गियों की क्या कहो... नगर वधुएँ और लम्पट युवक भी बुद्ध की शरणागत थे... यहाँ तक कि महादुरात्मा-हत्यारा अंगुलिमाल तक... चीवर धारण कर "सम्यक-ज्ञान" बाँट रहा था..!

अरस्तू परेशान था... सिकन्दर रुका है... बेबीलोन में... उदास... अवसादग्रस्त... उसके माशूक हेफिस्टन की मौत हो चुकी है...नहीं मौत नही क़त्ल... उस दुष्ट औरत ने जिससे सिकंदर ने एशिया में सियासी-मसाइल हल करने के लिए ब्याह किया था... उससे हेफिस्टन के लिए सिकन्दर की बेपनाह मोहब्बत न देखी गई... सो उसने ज़हर दे कर उस हिम्मती-सिपाही और ईमानदार-दोस्त को क़त्ल करवा दिया... उफ़्फ़! ओपलो ने सिकन्दर के जीने के दोनों मक़सद एक साथ छीन लिए... "फ़तह" और "इश्क़"... क्या अरस्तू का ये ख़ाब... की सिकन्दर दुनिया का अज़ीमतर बादशाह है... यूँ ही टूट जाएगा... क्या अरस्तू के शागिर्द का इतिहास एक टूटे-दिल आशिक की दास्तान बन जाएगी...अगर ऐसा हुआ तो कौन नौजवान यूनान के झंडे तले दुनिया को रौंदने निकलेगा... नहीं नहीं.. अरस्तू यह न होने देगा... यह सोचते हुए अरस्तू ने अपनी उंगली में पड़ी कश्मीरी-नीलम की अंगूठी ग़ुलाम के हाथों में रख दी...!

बंस-झुरमुटों में मधुमक्खीयां भिनभिना रही थीं... हवा शीतल थी... बुद्ध बैठे कह रहे थे-- आंनद! अस्सी वर्ष् का हो रहा हूँ... पिछले चालीस वर्षों से मैं निरंतर बोलता रहा हूँ... इतना तो किसी ने न बोला होगा... और यह सब मैंने जिस कारण बोला वह तो अबोला ही है... सुनो! चांड के यहां खाया सुकरमेद(कुकरमुत्ता) ही मेरा अंतिम भोजन बनेगा... मेरे महानिर्वाण के पश्चात तुम देखोगे की जो धर्म सहस्राब्दीयों पथप्रदर्शक रहता... वह शताब्दीयों में ही नष्ट हो जाएगा... क्यों कि तुम्हारे आग्रह पर मैंने स्त्रियों को विहार में स्थान दे दिया है... वस्तुतः स्त्री संसार है... उसका सन्यास में आगमन सन्यास को संसार से संक्रमित कर जाएगा... परन्तु तुम लज्जित न होना... यह सब नष्टप्रायः है चाहे जीव हो या सम्प्रदाय... शेष रहता है तो केवल सत्य... सनातन सत्य... सुनो आंनद मेरा अंतिम सत्य ध्यान में रखना- "अप्प दीपो भवः"... स्वयम ही स्वयम के पथप्रदर्शक बनो..न कोई प्रिय न अप्रिय...सब सम्यक..सब समान... सुनो! जीवन को एक  हीनयान(छोटी नौका) मानो...जिस पर केवल 'एक ही जा सकता है... अतः अकेले चलो...!'

"नहीं!मैं अकेले कैसे जी सकता हूँ! मेरे सिपाही मुझे छोड़ गए! मेरा मुर्शिद साथ नहीं! मेरा घर! मेरा वतन भी मेरे साथ नहीं! और सबसे बढ़ कर.. मेरा इश्क़ मेरा हेफिस्टन भी मुझे छोड़ गया..!"...  यह कहता हुआ बेहिस-सिकन्दर ज़मीन पर पछाड़ें मारता हुआ गिर पड़ा... होश में आने पर सामने खड़े अरस्तू के ग़ुलाम को देखता है... जो नीलम के पियाले में शराब लिए खड़ा है... सिकन्दर उसे गटागट पी जाता है... और धुत्त हो कर गिर पड़ता है... बाहर सब उदास हैं... दिन बीतते जाते हैं... सिकन्दर का मर्ज़ बढ़ता जाता है... बुखार हर शाम कंपकंपी दे कर आता है... गर्दन के पीछे की पुरानी चोट भी उभर आई है... सीना रह रह के दुःखता है... आँख खोलते ही दर्द कि हजारों तस्वीरें सामने होती हैं... बाप की लाश... भाइयों के खून... सौतली माँ की जलती देह... लाखों बेगुनाहों की चीखें ... सब बढ़ बढ़ कर सिकंदर का गला घोंटने लगतीं ... वो घबरा के उठता और पुकारता - "हेफिस्टन!हेफिस्टन! मुझे बचा लो! मुझे अकेले डर लगता है! मुझे... हाँ तुम्हारे सिकन्दर को बहुत डर लगता है... तुम ठीक कहते थे हेफिस्टन... जीत अच्छी जीत का नशा अच्छा नही होता... देखो आज न जीत है न जीत का नशा... पर ये कौन सा नशा है जो मुझ पर तारी है... ओह! शायद मौत का नशा... रुको मैं आता हूँ... सुनो! पेड्रिक्स! मेरे मरने के बाद... मेरे हाथ कफ़न से बाहर रखना... ताकि ज़माने याद रख सकें... की हर सिकन्दर जीतते हुए बीत जाता है ... हर सिकन्दर यूँ ही आख़िरस रीत जाता है... ओह! मेरे प्यारे मकदूनिया मैं तूम्हारी मिट्टी में नही मिल पाऊंगा... और ये अच्छा भी है... इतने बेगुनाहों के लोहू में सनी मेरी मिट्टी अब एथेना के काबिल भी तो नहीं रही.. ऐ मेरे यारों! अरस्तू से कह देना.. उनका अज़ीम-ख़्वाब बिलआख़िर बर्बादी की दास्तान बन गया... काश मैं अरस्तू का नहीं हेफिस्टन का ख़ाब बन कर रह जाता तो शायद थोड़ा और जी पता...आह!"... इतना कहते कहते धरती के पहले तानाशाह की सांस उखड़ गई... उसकी गर्दन  आकाश से झुक कर ज़मीन की ओर लुढ़क गई... उत्तर में अटल सितारा मौन देख रहा था... वो जो दुनिया फ़तह करने निकला था... आज एक आम इंसान की मौत मर गया...!

बैसाख पूर्णिमा की बोधमयी निशा के प्रांगण में बैठे... अर्द्धऋषि-रोबिंद्रनाथ... चुपचाप उस अद्वितीय चंद्रमा को निहारते हुए बोधगया का ध्यान करते हैं... तथा ध्यान करते हैं उन दो अधमुँदी-पलकों का जिसकी करुणा-छाँह ने मात्र कुछ ही शताब्दियों में आधे से अधिक संसार को ढक दिया है... रोबिंद्र कलम उठाते हैं... सामने जलते-लालटेन को देखते हैं...  देखते हैं उसकी अकेली-लपकती-लौ को... और कागज़ पर लिखते हैं--
 "एकला चलो
एकला चलो
एकला चलो रे...!"

७- मई-२०२०
ओमा The अक्©

(बुद्धपूर्णिमा और रोबिंद्र नाथ जयंती के उपलक्ष्य पर अमरत्व के सिद्धांत को अपनी दृष्टि से समझते हुए... मैंने एक काल्पनिक कथाचित्र को रचा है.. उर्दू और हिंदी के समानांतर प्रयोग से यहाँ दो सँस्कृतयो के अंतर को दिखाया है... यह एक स्मृतिपत्र है "कामना और करुणा" के नाम..💐)

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