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Showing posts from May, 2020

अहिल्याबाई होलकर

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अहिल्याबाई होलकर "रात्रि का अंतिम प्रहर समाप्त होने को था...मन्दिर का किवाड़ खोल कर भीतर गए पंडितों ने देखा कि शिव-लिंग ने अपना स्थान स्वयम ही परिवर्तित कर लिया है..."हर हर महादेव"....जय काशी विश्वनाथ शम्भू... जय देवी अहिल्याबाई होलकर की...! काशी का प्रभाती-व्योम इन नारों से गुंज रहा था...शताब्दी के पश्चात काशी को भोलेनाथ और हिन्दू-समुदाय को उनका केंद्रीय-मन्दिर पुनः प्राप्त हो चुका था... हिन्दू समुदाय अंदर तक जाग उठा था भगवान् के इस चमत्कार से...इस्लाम और ईसाइयत के प्रचार में न दिखने वाले अल्लाह की व्यख्याएँ इस चमत्कार के आगे धुंधली पड़ चुकी थीं...ऊदास हो चुके धर्म को सूर्य की तेजस्वी-किरण ने पुनः स्पर्श कर लिया था! मई की चिलचिलाती गर्मी में ३१ तारीख १७२५ के साल में "अहिल्या" का जन्म हुआ...वह जन्म से ही शिव भक्त थी...ऐसा प्रतीत होता था कि   वह रुद्राक्ष की कोई कली हो जिसने मानव देह धारण कर ली थी।...सनातन धर्म के सूत्र उसके रक्त में प्राण बन कर दौड़ने लगे थे...उसे कण कण में शंकर के दर्शन होते थे।..मात्र १२ वर्ष् की अवस्था मे उसका विवाह "खांडेराव होल्कर"

उघटा पुराण

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उघटा पुराण.. ---------- "मेरी दादी को पूर्वांचल की बोली में (भोजपुरी इत्यादि)  अजीब-अजीब "उधारण" देने की आदत थी (जो मेरी माँ को अभी भी है)... जैसे बहुत-दूरी नापने के लिए उनके पास लाइट-ईयर से बड़ा पैमाना था "पम्मापुर" (पाम्पेय सरोवर जहाँ सुग्रीव रहते थे)... फिर "पिण्डदान" (समाप्ती) और "पिण्ड छुड़ाना" (मुक्ति का प्रयास) या  "बवंडरी" (मतलब उत्त्पाती बच्चा / मैं) और भी बहुत से "एक्सएम्पल्स".. परन्तु एक उधारण बड़ा "जटिल" था एकदम "पाइथागोरस के प्रमेय" सा (मेरे लिए गणित उतनी ही मुश्किल है जितनी "खली के लिए जिम्नास्टिक") और उधारण-विशेष था -- "उघटा पुराण"-- वास्तव में इसका वास्तविक अर्थ आज तक "दुर्भेद्य" है... किन्तु कुछ कुछ इसका अर्थ आज समझ मे आया...! आज जब मैं "हिंदी कविता" एक साहित्यिक मंच पर उसके संचालकों के आग्रह पर "भारतीय-दर्शन एक दृष्टि" नामक लघु-शृंखला में अपना तीसरा वक्तव्य दे रहा था... पिछली दो-कड़ियों में "सनातन धर्म" की व्यापकता को

मजहब

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मज़हब..... ------------ आज बहुत गर्मी थी...तापमान पिछले दस सालों में सबसे अधिक था इन दिनों बनारस में.. कोई 46℃...मग़र फिर भी मुस्लिम समुदाय बड़ी मस्ती से रोज़ा और इफ़्तार में लगा है पिछले पच्चीस दिनों से...आज शबेक़दर का रोज़ा था...मेरे दत्तक पुत्र साक़िब भारत ने मुझे सुबह 3 बजे कहा -" सहरी कर लीजिए..आज रोज़ा रखना है न आपको!"...मैंने कहा --" हाँ! पर कुछ खाएंगे नहीं हम...बस पानी पी कर सो जाते हैं!"...और मैंने दो-चार घूँट पानी पिया और रोज़े का संकल्प करते हुए हर बार की तरह कहा --" भगवान् जी! यदि आप चाहेंगे तो हम रोज़ा लेंगे..नहीं तो आप की मर्ज़ी मेरी मर्ज़ी!".... और देखिये उसने चाहा और मैं 16 घण्टे की भूख-प्यास के बाद भी तरो-ताज़ा रह गया दावते-इफ़्तार के लिए जो साक़िब भारत के घर पर थी... मुझे घर से लेने के लिए मेरे हबीब मरहूम सुलेमान आसिफ़ साहब का होनहार नाती और मेरा मित्र अफ़सर आया... उसकी गाड़ी पर बैठने के बाद मैंने उसे कहा--" आज मुझे पानी शब्द जितना सुन्दर लग रहा है कभी नही लगा...और आज मुझे पानी का एक कतरा भी बर्बाद होता बुरा लग रहा है... विज्ञान में रंग हीन

एकला चलो रे... (बुद्ध और सिकंदर) - ओमा द अक्

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एकला चलो रे... (बुद्ध और सिकंदर ) ------------- "उत्तर दिशा के क्षितिज पर गोधूलि की रक्तिम आभा शनै-शनै धूमिल हो रही थी... काले- सँवलाये-आकाश में अटल-ध्रुव प्रकट होने को था... उस अटल-यथार्थ का उद्घोष करने... जो संसार मे आने वाले प्रत्येक जीव के समक्ष एक न एक दिन आता है-- "मरण"-- सम्प्रति! इसी अटल-ध्रुव से शीश-जोड़े तथागत लेटे हुए थे... सांसारिक-लोगों के लिए यूँ लेटना अशुभ है पर सन्यासी को तो यूँही मंगल-बोध होता है... निकट में मुड़-मुंडाए-भिक्खुओं का समूह निःशब्द देख रहा था... उस गौतम के परिनिर्वाण को जो संसार के विज्ञान का महानतम-उद्घोषक है... उस बुद्ध को जिसके पदचिह्न दुःख से मुक्ति की ओर लिए जाते हैं... आज वह स्वयम जा रहा है... किन्तु कैसा शांत और संयमित.. मानो कोई मनचाही यात्रा पर निकल रहा हो... अहोभाग्य! क्या मृत्यु इतनी सरल और सुंदर भी होती है...? यूनान की एक छोटी सी सल्तनत "मकदूनिया" में आज शाम बड़ी रंगीली थी... चाँद अपने पूरे शबाब पर था... जो अपनी चाँदनी के जाल फेंक कर आसमान के तमाम-सितारों को गुमशुदा किये जा रहा था... बस दूर एक सितारा उत