बुर्का या घूंघट का स्त्री के अस्तित्व पे असर
"इस्लाम" में महिलाओं को हिज़ाब या नक़ाब(बढ़ते बढ़ते बुर्का) पहनना, यक़ीनन ये एक दौर,एक समाज, एक सभ्यता और एक भौगौलिक सिमा की आवश्यकता रही होगी । लेकिन इस्लाम के मूलभूत नियमों (तौहीद) में इसका कोई स्थान नहीं । और सम्प्रदाय या आस्था के मूल को छोड़ कर अन्य सभी बातें समय और स्थान के अनुसार यदि नहीं बदली जाएं तो वरदान से अभिशाप में बदल जाती हैं । जो आज मुस्लिम महिलाओं के साथ हो रहा है / आज के दौर में जब पूरी दुनिया अनियंत्रित रूप से एक वैश्विक गाँव की ओर बह रही है ऐसे में पर्दा प्रथा को बचाना एक बचकानी और मूर्खता पूर्ण कोशिश बन जाती है । आने वाले वक़्त में (यानि 4 दशकों के भीतर) जान संसार पूरी तरह से ग्लोबल हो जाएगा और तकनीक भावनाओं का स्थान घेर लेंगी, सम्प्रदाय जीर्ण और मृत हो जाएंगे ऐसे वक़्त में जब सब सामजिक ढाँचे नष्ट हो जाएंगे उस वक़्त इस प्रथा को याद करके केवल हँसा और रोया जाएगा , हँसी इसलिए की ये मूर्खता कितने बरस ढोई गई, और रोना उन मजलूम, निरीह महिलाओं के जीवन के बारे में सोच कर जो कहने को तो "अशरफुल-मख्लूक़"(श्रेष्टतम जीव) की कतार में पैदा हुईं लेकिन ज़िन्दगी ए...