विविधभारती...

"ये आकाशवाणी है ! ..और आप सुन रहे हैं--- "विविध भारती"..!"

... जी हाँ ! कुछ ऐसे ही तो खुलती थी मेरी आँखें मेरे बचपन की सुबह.. एक शहनाई की गूँज... एक वन्देमातरम..कुछ मर्मस्पर्शिय भजन.. और फिर "भूले बिसरे गीत" ..जो वास्तव में कभी भुलाए नहीं जाते.. वो मधुर और स्पष्ट भाषा में उद्घोषणा करते उद्घोषक न जाने कब मेरी भाषा बन गए पता ही नहीं लगा... हर शब्द की अपनी ही शक्ति और मूल्य होता है यह मैंने उन्ही उद्घोषकों से जाना...सच पूछो तो मेरी "हिन्दी कि कक्षा थी विविध भारती" । स्कूल से लौट कर जब दोपहर में मैं घर आता..मेरी "अम्मा" तेज़ आवाज़ में "विविध भारती" सुन रही होतीं.."कार्यक्रम का अगला गीत लता मंगेशकर की आवाज़ में...गीतकार हैं शैलेंद्र और संगीतकार शंकर-जयकिशन..फिल्म का नाम है "अवारा" ..." जी हाँ ! कुछ ऐसे ही मैंने भारतीय फिल्म संगीत से अपना रिश्ता बनाया और इसकी समझ बढ़ाई... विविध भारती केवल गीत नहीं गीत का इतिहास भी सुनाता रहा है...और उसके चरित्र की व्याख्या भी करता कभी कभी "छाया गीत" में... कितना कुछ तो था इस छोटे से "पिटारे" में...नाटक,सिनेमा,गीत,सङ्गीत,विज्ञान,भाषा,सूचना-समाचार,वार्ताएं,साक्षत्कार,हास्य का "हवामहल"....
सीमा पर कठोर वातावरण और हर ओर गुन्जन करती मृत्यु में जब किसी "हृदयजीवी" के स्वर में गुँथी "जयमाला" पहुँचती तो हर फौजी उसे अपने गले का हार बना लेता..शायद मैडल के अतिरिक्त "विविध भारती बजाता रेडियो" ही होगा जो देश के जवानों के गले से लगा सीने पर लटका इतराता होगा... 
उफ़ ! वो बचपन का बड़ा सा रेडियो और उस पर ऊंघती रात ... कितने लोग मिलते थे बिन देखे ..बस नामों से...कई नाम तो मेरे बड़े जाने पहचाने थे गो उन नामो के इंसानों से कोई पहचान कभी न हुई..जैसे "मधुबाला शास्त्री"..कौन थीं आप नहीं पता..बस "आपकी फरमाइश" सुनते रहे...और "आपकी फ़रमाइश" की प्रतीक्षा करते रहे...
3 अक्टूबर 1957 को जब पहली बार विविध भारती प्रसारण सेवा शुरू हुई तबसे आज तक अनवरत इसकी यात्रा चल रही है..जैसे कोई खुश्बूदार हवा...जो हर तरफ लहराए और साँसों में उतर जाए ... कितनी फिल्मो में ये "रेडियो" दिखा..बजा...और दिल में उतर गया...याद है वो मधुबाला के अतुलनीय "क्लोज़-अप्स" ..रेडियो पर विविध भारती सुनते हुए..."ज़िन्दगी भर नहीं भूलेगी वो..." ...पता नहीं रेडियो की वो मासूम दुनिया कहाँ खो गई...गाने तो अब भी मिलते हैं ..और रेडियो से अधिक सहजता से व अपनी पसंद के मिल जाते हैं--"ऑन लाइन" ... 
लेकिन वो हल्की खरखराहट को ठीक करते हुए "लता-रफ़ी" का युगल गीत सुनने का मज़ा ऑनलाइन नहीं आता...
लेकिन वो स्पष्ट हिन्दी भाषा में उद्घोषणा के साथ गीत को उसके इतिहास के साथ ऑनलाइन नहीं सुना जाता...
लेकिन मधुबाला शास्त्री और साथी की फ़रमाइश रात गए ऑनलाइन नहीं मिलती...
लेकिन सखियों की बातें ऑनलाइन नहीं सुनाई पड़ती...
ऑनलाइन हमारी पसन्द तो मिल जाती है लेकिन "औरों" की पसन्द नहीं मिलती...

लेकिन लेकिन लेकिन...

हाँ सब बदल जाता है समय के प्रवाह में...

लेकिन अब भी गूँजता है...घरों में , दुकानों में, गंवई संसार में,लक्सरी कार में, घुटे हुए आहातों में और विरही-रातों में...

 "विविध भारती ...देश की सुरीली धड़कन......!!"

(विविध भारती की उंसठवीं वर्षगाँठ पर लिखा एक स्मृतिपत्र)

सप्रेम---

ओमा The अक्©
3 अक्तूबर 2016

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