कविता-आलोक

कविता-आलोक
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"गँवई मिट्टी का खिलौना... जब कभी क़स्बों के हाट-बाज़ार तक पहुँचता है... तब उसे पहली बार यह पता लगता है कि 'वो बिक भी सकता है'... वास्तव में! कविता बड़ी व्यक्तिगत होती है... इसलिये बड़ी छिपा के रखी जाती है... यही कारण है कि ग्राम्य-संस्कृति में जन्मी ऋचाओं को सहस्राब्दियों छिपाए रखा गया किसी भी "हाट-बाजार" से... बस किसी किसी 'द्विज' के कानों में कोई पुरनिया कह देता था.. ताकि  मिट्टी पर उगा आकाश सुरक्षित रह सके... हाँ! हर वास्तविक कविता मिट्टी पर उगा आकाश है... जैसे उगता है आकाश मिट्टी से अंकुरित हो कर अन्न के रूप में... अन्न वो कविताएं हैं जिसे किसान लिखते हैं... और भरते हैं उन विचारकों-कवियों के पेट जो अपनी रचनाएं करते हुए कभी भी याद नही करते कि उनके काग़ज़ पर जो विचार या काव्य उग रहे हैं वास्तव में उनकी जड़ें उनके पेट में हैं... इस प्रकार प्रत्येक कविता किसी न किसी खेत... किसी न किसी गाँव की कृतज्ञ होती है... परन्तु नही होता है हर कवि कृतज्ञ अपने पेट मे पड़े अन्न के रचनाकार किसान का... उपजाऊ खेत का... हाट-बाज़ार के पीछे छूट गए अधपके गाँव का... किन्तु यह ब्राह्मण कवि है कृतज्ञ... अपने पिछड़े परन्तु सर उठाए गाँव का... तभी तो बड़े 'ग्राम्याभिमान' से कहता है-- 
"दिल्ली में जबसे शोर बढ़ा है/
गाँव को गिरवी रख/
पैदल चल दिये/"

वस्तुतः इस कवि की रचनाओं में लखनपुर (या भारत का कोई भी जीवित गाँव) की मिट्टी बिखरी पड़ी है... चाहे वह बनारस या इलाहाबाद जैसे नगरों में क्यों न भटक रहा हो... उसकी दृष्टि में केवल मिट्टी ही मिट्टी है... तभी तो उसे जगमगाते "दशाश्वमेध घाट" की जगह मिट्टी-मिट्टी "मणिकर्णिका घाट" बुलाता है और बतियाने लगता है--
"जा चला जा
लेकिन तू फिर मेरे पास आएगा
तब
जब
तेरा सब कुछ
उस चमक में
खो जाएगा!"
हिन्दी साहित्य में जैसे प्रेमचंद और रेणु के कथाओं-उपन्यासों में उनके आसपास के परिवेश की छाया ही मिलती है... उनके गाँव... उनके लोग... उनकी बोली... यही बात इस कवि की रचनाओं में भी है... यह अपने चारोओर हो रही घटनाओं का शान्त-अवलोकन करता है तथा वहीं से अपनी कविता उठाता है... इसलिए इसकी रचनाओं में बिम्ब बड़े स्पष्ट हो जाते हैं (जो एक दुरूह कार्य है) और आप इन बिम्बों के माध्यम से उस काल-परिस्थिति-परिवेश में प्रवेश कर जाते हैं जहाँ कल तक केवल और केवल कवि था-- "हमारे गाँव के/ खेदन के सर पर छत नहीं है/ और घूरन तो बिना चादर लिए/कच्ची उम्र में ही श्मशान कूच कर गया!"

कविता करना कोई खेल नहीं किन्तु कविताएं कवि के लिए खेल ही हो जाती हैं जब वह एक काव्यात्मक-हृदय विकसित कर लेता है... भाषा और व्याकरण की शुद्धि निःसन्देह एक महान कविता रचने में सफल हो सकती है... किन्तु महान कविता "अनगढ़ व्याकरण और चलती भाषा" में नहीं आ सकती यह भी सत्य नहीं है अन्यथा "कबीर" या "पलटू" हमारे बीच नहीं होते... इस युवाकवि कि भाषा में भी कुछ त्रुटियाँ हैं(यद्धपि वह बहुत ही कम है या कदाचित टंकण-त्रुटि हो)... किन्तु यह त्रुटियाँ उसकी अपनी भाषा का अंग ही है... यह पूर्वांचल के देहाती मानस में घुली मिली बोली का परिणाम है... अतः इन कविताओं को इन साहित्यिक अशुद्धियों के साथ भी स्वीकार कर लेना कोई अपराध नहीं होगा-- 
"प्रेम महज ढाई आखर नहीं
कुछ और है
जिसको समझने के लिए
मुझे अभी वर्षों लगेंगे..।"

इस संग्रह में "लक्ष्मी बाई" नामक कविता कवि के "श्रेष्ट तुलनात्मक-मस्तिष्क" का उधारण है... तो "नाविक" उसकी दार्शनिक-दृष्टि की अभिव्यक्ति है... वहीं "पुल और नदी" में कवि का प्रेमिल-हृदय झलकता है... तथा "पीठ पर लदा भारी बस्ता" में कवि की सामाजिक-समझ स्पष्ट होती है... "पगडंडी" में ममत्व तो "बनारस" में करुणा वहीं "बलात्कार" में कवि का विद्रोही तेवर भी दृष्टिगोचर होता है... कुल मिला कर यह संग्रह एक कवि का प्रथम संग्रह हो कर भी प्रथम नहीं लगता... इसकी कविताएं जीवित है सांस ले रही हैं इस कारण मुझे विश्वास है कि समय के संयोग से इनका और भी विस्तार होगा और यह युवाकवि जिसका नाम है "डॉ• आलोक मिश्र" वह हिन्दी साहित्य की दीपमाला का एक आलोकित-दीपक सिद्ध होगा...!"

१ जुलाई २०२०
ओमा The अक्

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