"क़िरदारे-आसिफ़"
अच्छी बात है....! हाँ ! यही एक जुमला था..जो वो अक्सर दुहराते थे... कोई भी दौर हो कोई भी मौक़ा हो कोई भी शख्स..उन्हें उसमें एक न एक अच्छी बात मिल ही जाती थी...जैसे हँस को नीर में क्षीर.. !
आँखों पर मोटा ऐनक... जैसे आसमान झलकाता दरीचा..सर पर शायराना टोपी..जैसे किसी फीक्रमन्द-पहाड़ की पुरअसरार चोटी..ज़रा सा झुकती रीढ़..जैसे नीम-सिज़दा किये कोई मोनिन..या अल्लाह की शान-ओ-अदब सर झुकाए कोई शरीफ़ बन्दा..जिसके हाथ में एक श्मशीरे-हक़ ... सूरते-क़लम लहराती जाती..हाँ ! कभी कभी ये इश्क़ के फूलों से भरपूर कोई नाज़ुक टहनी भी बन जाती..और फ़िज़ाओं में ग़ज़ल महकने लगती...!....उनकी आवाज़ में जंगली शेर की दहाड़ थी तो उमर ख्यायम की रुबाइयों में गूँजते रावाब का सोज़ भी था..सच की आवाज़ ऐसी ही होती है..!
"हंगामा-हस्ती से अलग गोशा-नाशिनो/बेसूद रियाज़त का सिला माँग रहे हो..".... अपने वक़्त...अपने समाज को ख़ुद-मुख्तारी और मेहनत का सबक देने से पहले उन्होंने उसे अपनी ज़िंदगी में ढाला...वो ता'उम्र मेहनतकश रहे और दिलदार भी...उन्हें वक़्त ने कई थपेड़े दिए..दर्द दिए...बीमारियाँ दीं... लेकिन वो बस ये कह कर हँस देते.."चश्मे-साक़ी तो नज़र आती है मैख़ानाबदोश.."...उन्हें किसी से शिक़ायत न थी..न इंसानों से न हैवानों से..न अपनों से न परायों से...न हबीब से न रक़ीब से..न वक़्त से न नसीब से... हाँ ! कोई शिक़वा करते भी तो अपने आप से.."तुम बैठे मुसल्ले पे दुआ माँग रहे हो.."...अपने उस्ताद की बात याद आती उन्हें "ख़ौल आँख/ज़मी देख/फ़लक़ देख/फ़िज़ा देख"...! लेकिन ये शिक़वे भी वक़्ती होते..क्यों की उन्हें ख़ुदा की ज़ात पर इस क़दर यक़ीन था जो उन्हें मायूसी के कुफ़्र से बचाए रखता...!
कहते थे अक्सर वो "मुझे तो शहरे बनारस ने आसमान किया"!....कहते हैं काशी मोक्ष-धाम है जहाँ उत्तरवाहिनी गङ्गा अपने उद्गम की ओर लौट जाने का संदेश लिए बहती रहती है...जिसके किनारे चौरासी घाट.. चौरासी लाख योनियों के भटकाव की गाथा सुनाते हुए..मुक्ति मन्त्र देते हैं..वो भी इसी गङ्गा के सैदाई थे...वो भी इन्ही घाटों के साथ टहलते थे...टहलते टहलते चौरासी-साल बीत गए...अब घाटों की गाथा पूर्ण हो चली थी...अब मोक्ष का मंत्र गुँजने लगा...समय के पत्थरो पर घिसते घिसते शरीर जीर्ण हो चला था... वो अपनी औलादों से पूछ रहे थे--"अरे भाई ! अल्लाह मियाँ हैं कहाँ..!"...सुन कर महादेव मुस्कुरा पड़े...! ...गङ्गा पल भर को ठहर गई...!..घाट मोक्षमंत्र दुहराने लगे... क्षितिज का द्वार खुला... सूरज कि किरणों पर आयत उतरी "इंन्लिल्लाह वः इन्ना लिल्लः राय'जून..!! नसीमे-सुब्ह के हल्के परों बैठ वो दरख्शां-रूह उफ़क़ के पार चली गई...उसके आखरी सवाल का जवाब बाँहें फैलाए सामने खड़ा था...!!...शमा बुझ गई...वो शमा जो बरसों इस हिंदुस्तान की ज़मीन और "क़िरदार साज़ी" की शुआएँ बिखेरती रही..लेकिन सब जानते हैं शमा का बुझना "रौशनी" का बुझना नहीं होता...!
हाँ ! आज उस अज़ीम क़िरदार सुलैमान आसिफ़ का जन्मदिन है जो स्वतंत्रता सेनानी थे..अज़ीम शाइर थे..अदीब थे...उस्ताद थे..देशभक्त थे...हिंदुस्तानी थे... और....
और हाँ ! मेरे सबसे अच्छे दोस्त थे !!
चिराग़े-दैर सुलैमान आसिफ़ के नाम उनके जन्मदिन और "चरित्र निर्माण दिवस " पर...
सप्रेम--
ओमा The अक्
22 सितम्बर 2016
आँखों पर मोटा ऐनक... जैसे आसमान झलकाता दरीचा..सर पर शायराना टोपी..जैसे किसी फीक्रमन्द-पहाड़ की पुरअसरार चोटी..ज़रा सा झुकती रीढ़..जैसे नीम-सिज़दा किये कोई मोनिन..या अल्लाह की शान-ओ-अदब सर झुकाए कोई शरीफ़ बन्दा..जिसके हाथ में एक श्मशीरे-हक़ ... सूरते-क़लम लहराती जाती..हाँ ! कभी कभी ये इश्क़ के फूलों से भरपूर कोई नाज़ुक टहनी भी बन जाती..और फ़िज़ाओं में ग़ज़ल महकने लगती...!....उनकी आवाज़ में जंगली शेर की दहाड़ थी तो उमर ख्यायम की रुबाइयों में गूँजते रावाब का सोज़ भी था..सच की आवाज़ ऐसी ही होती है..!
"हंगामा-हस्ती से अलग गोशा-नाशिनो/बेसूद रियाज़त का सिला माँग रहे हो..".... अपने वक़्त...अपने समाज को ख़ुद-मुख्तारी और मेहनत का सबक देने से पहले उन्होंने उसे अपनी ज़िंदगी में ढाला...वो ता'उम्र मेहनतकश रहे और दिलदार भी...उन्हें वक़्त ने कई थपेड़े दिए..दर्द दिए...बीमारियाँ दीं... लेकिन वो बस ये कह कर हँस देते.."चश्मे-साक़ी तो नज़र आती है मैख़ानाबदोश.."...उन्हें किसी से शिक़ायत न थी..न इंसानों से न हैवानों से..न अपनों से न परायों से...न हबीब से न रक़ीब से..न वक़्त से न नसीब से... हाँ ! कोई शिक़वा करते भी तो अपने आप से.."तुम बैठे मुसल्ले पे दुआ माँग रहे हो.."...अपने उस्ताद की बात याद आती उन्हें "ख़ौल आँख/ज़मी देख/फ़लक़ देख/फ़िज़ा देख"...! लेकिन ये शिक़वे भी वक़्ती होते..क्यों की उन्हें ख़ुदा की ज़ात पर इस क़दर यक़ीन था जो उन्हें मायूसी के कुफ़्र से बचाए रखता...!
कहते थे अक्सर वो "मुझे तो शहरे बनारस ने आसमान किया"!....कहते हैं काशी मोक्ष-धाम है जहाँ उत्तरवाहिनी गङ्गा अपने उद्गम की ओर लौट जाने का संदेश लिए बहती रहती है...जिसके किनारे चौरासी घाट.. चौरासी लाख योनियों के भटकाव की गाथा सुनाते हुए..मुक्ति मन्त्र देते हैं..वो भी इसी गङ्गा के सैदाई थे...वो भी इन्ही घाटों के साथ टहलते थे...टहलते टहलते चौरासी-साल बीत गए...अब घाटों की गाथा पूर्ण हो चली थी...अब मोक्ष का मंत्र गुँजने लगा...समय के पत्थरो पर घिसते घिसते शरीर जीर्ण हो चला था... वो अपनी औलादों से पूछ रहे थे--"अरे भाई ! अल्लाह मियाँ हैं कहाँ..!"...सुन कर महादेव मुस्कुरा पड़े...! ...गङ्गा पल भर को ठहर गई...!..घाट मोक्षमंत्र दुहराने लगे... क्षितिज का द्वार खुला... सूरज कि किरणों पर आयत उतरी "इंन्लिल्लाह वः इन्ना लिल्लः राय'जून..!! नसीमे-सुब्ह के हल्के परों बैठ वो दरख्शां-रूह उफ़क़ के पार चली गई...उसके आखरी सवाल का जवाब बाँहें फैलाए सामने खड़ा था...!!...शमा बुझ गई...वो शमा जो बरसों इस हिंदुस्तान की ज़मीन और "क़िरदार साज़ी" की शुआएँ बिखेरती रही..लेकिन सब जानते हैं शमा का बुझना "रौशनी" का बुझना नहीं होता...!
हाँ ! आज उस अज़ीम क़िरदार सुलैमान आसिफ़ का जन्मदिन है जो स्वतंत्रता सेनानी थे..अज़ीम शाइर थे..अदीब थे...उस्ताद थे..देशभक्त थे...हिंदुस्तानी थे... और....
और हाँ ! मेरे सबसे अच्छे दोस्त थे !!
चिराग़े-दैर सुलैमान आसिफ़ के नाम उनके जन्मदिन और "चरित्र निर्माण दिवस " पर...
सप्रेम--
ओमा The अक्
22 सितम्बर 2016