Mohenjo-Daro Film Review

"ना जाने कब ये मुम्बईया-फ़िल्मकार इतिहास से बालात्कार बंद करंगे ! 50-60 के दशक में जब धन और तकनीक की बहुत कमी थी तब हिन्दी-सिनेमा में यदि ऐतिहासिक-फिल्मो में इतिहास की झलक कम आती थी तो वो क्षम्य हो सकती है , किन्तु आज जब "इण्डियन-फ़िल्म-इंड्रस्टी" विशुद्ध मुनाफ़ाख़ोर-व्यापारियों का अड्डा बन चुकी है ऐसे में जब सैकङो करोड़ उड़ा कर भी  एक वाहियात और मसालेदार सिनेमा को ईतिहास के नाम पर परोसा जाता है तो बहुत रोष होता है ।
अभी "बाजिराओ-मस्तानी" की तक़लीफ़ मिटी भी नहीं थी कि "जोधा-अक़बर" जैसी नौटंकी बनाने वाले "आशुतोष गोवरेकर" ने एक नया तमाशा परोसा है "मोहेनजो दारो" (वैसे हिंदी के अनुसार इसे "मोहन जोदड़ो" होना चाहिए था) । इस फ़िल्म में बहुत कुछ है बड़े स्टार (हृतिक रोशन,कबीर बेदी), बड़ा संगीतकार (ए आर रहमान), बड़ा गीतकार (ज़ावेद अख़्तर) , मादक अभिनेत्री,बड़े बड़े सेट, इफ़ेक्ट, नाच-गाना, बड़ा बैनर...सब कुछ...बस नहीं है तो -- सार्थक कहाँनी, उस युग को छूता मधुर संगीत, समझ में आने और दिल में उतरने वाले गीत, प्रभावशाली अभिनय और इतिहास को उभार सकने वाली स्क्रिप्ट के .....
"मोहेंजो दारो" को देखते हुए एक बार भी नहीं लगता कि आप हिंदी तथा भारतीय सिनेमा देख रहे हैं जो भारत के इतिहास की सबसे उन्नत-सभ्यता का बखान है.. बल्कि आपको किसी दोयम-दर्ज़े की 'हॉलीवुड-फ़िल्म' के डब-वर्ज़न देखने का एहसास होता है , जो मिश्र या बेबीलोन की सभ्यता का कोई मिथक दिखा रही हो .... न तो प्राचीन नगर के स्वरुप पर कोई मेहनत की गई है, न तो मेकअप और वस्त्रविन्यास पर जो पीरियड-फ़िल्म्स में बहुत महत्वपूर्ण होते हैं .. हृतिक को देख कर तो आपको 'सर' धुनने का 'मन' होता है...फ़िल्म में हीरो नाम (सरमन) क्यों रखा गया, उसके बलों का स्टाईल इक्कीसवीं शताब्दी का किस लिए है, वो श्यामक डावर की क्लास के स्टूडेन्ट की तरह क्यों नाचता है, और उसका चेहरा भारतीय नहीं बल्कि ग्रीक लगता है ... ये सब इतिहास की झलक देखने आए दर्शक को बहुत तक़लीफ़ पहुँचाती हैं । वही हाल हीरोइन का है न अभिनय ,न मेकअप,न ड्रेस और न "एटीट्यूट" कुछ भी उसे "ईसा से 7 हज़ार साल पुरानी सभ्यता से नहीं जोड़ता.. ऐसा लगता है हीरो-हीरोइन टाइम-मशीन के ज़रिये हज़ारों साल पीछे चले गए ;)....
हाँ आशुतोष ने भन्साली की तरह भारतीय-सिनेमा की महान-फ़िल्म्स के सीन न चुरा कर महान-अंग्रेजी-सिनेमा के दृश्यों के सहारे फिल्म की कल्पना (?) की है... "बेनहर" "टेन कोमानमेंड्स" "ट्रॉय" "ग्लैडिएटर" और "टाइटैनिक" जैसी फ़िल्मो के दृश्य चुरा कर उसमें मुम्बईया-छौंक लगा कर "आशुतोष" ने एक रोचक फ़िल्म बना दी है..ए आर रहमान का संगीत सुनते हुए लगता है कि उन्हें अब सिर्फ़ विदेशी फ़िल्मस् में ही संगीत देना चाहिए उनके संगीत से अब बचा-खुचा हिन्दोस्तान भी नदारद है... जावेद अख़्तर के गीत हमेशा की तरह ही गीत कम "शब्द-पहेली" या लफ़्फ़ाज़ी भर ही हैं..एक भी गीत आप हॉल में बैठे समझ लें तो आपको "नोबेल पुरस्कार" मिलना चाहिए आपकी I. Q. (बुद्धिमता) के लिए ...और कोढ़ में ख़ाज़ फ़िल्म के उल-जुलूल भाषा में रचे डायलॉग जिससे शुरू में दर्शक डब-वर्ज़न की फिल्म मान कर कुर्सी से उठने लगते हैं .. समझ में नहीं आता हिन्दी-सिनेमा में ऐसे घटिया संवाद प्रयोग का क्या औचित्य... कदाचित और शुकरा ...ये भाषायी कॉकटेल आपको दुःखी कर देता है ....
फिल्म इंटरवल तक आपको उबा देती है लेकिन उसके बाद फिल्म जा स्क्रीनप्ले मसालों से भर जाता है और फिल्म एक स्पीड पकड़ लेती है... निःसंदेह फ़िल्म में युद्ध (ग्लैडीएटर स्टाईल) बहुत अच्छे स् फिल्माया गया है..और हृतिक पर क्रोध के दृश्य अच्छे लगते हैं...फ़िल्म अंतिम दृश्य में ज़रूर रोमांचित करती है..और सुखद भी होती है..किन्तु अब तो द एण्ड था...
कुल मिला कर "मोहनजो दारो" ज़ूरुर देखिये पर इतिहास की सच्चाई और भारत के अतीत की झलक के लिए नहीं.. बल्कि "बाबु भाई मिस्त्री" और "मनमोहन देसाई" को श्रद्धांजलि देने के लिए....।।

ओमा The अक्...

12 आगत 2016

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