बेदाग-धब्बे

बेदाग-धब्बे
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"कोई भी राष्ट्र तीन "ध" पर जीवित रहता है-- "धर्म" "धन" और "ध्येय"..!"-- The अक्

"प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि बेदाग है!".... यह वाक्य कितना मनोहर है... जैसे मनोहर होते है समुद्र में तैरते "जेली फिश" के समूह... पर अध्ययन बताता है यह सुन्दर समूह समुद्र के सबसे जहरीले अंग हैं..!" 

नरेंद्र मोदी की अभूतपूर्व लोकप्रियता और बहुमत भारत में एक अद्भुत "प्रतिक्रियात्मक-क्रांति" के रूप में समझी जानी चाहिए... यह उस समय के सत्तारूढ़ दल और उसके संवाहकों द्वारा "प्रोग्रेसिव" होने के नाम पर "हिन्दू-संस्कृति का अपमान" और बहूसंख्यक-जनता को हाशिये पर डालने के कुत्सित-प्रयास का परिणाम था... कुल मिला कर मेरे देखे यह "तथाकथित-विज्ञानवाद" और "छद्म-सेक्युलरिज्म" का मुंह तोड़ लोकतांत्रिक-जवाब भर था... घृणा से उभरी प्रतिघृणा की वह लहर जिस पर सत्ता की नाव ले कर नरेंद्र मोदी का भारत की केंद्रीय राजनीति में प्रवेश हुआ वो कदाचित "आर्क ऑफ नोहा" (नूह की नाव) बन सकती थी... परन्तु हुआ कुछ और ही..! 

सत्ता का मद रावण जैसे महाविद्वान को निगल गया तो यदि हम सामान्य बुद्धि स्तर के मनुष्य को इस मद से मुक्त मानने की आशा करें तो यह हमारी मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकती... परन्तु मादकता यदि मदान्धता बन जाए तो वह अत्यंत विषैली और आत्महंता सिद्ध होती है... और मोदी  सरकार में(यह भारत सरकार का मीडिया संकरण नाम है) यह मदान्धता अपने चरम तक पहुँची है... और इसके अनेक प्रमाण मुँह बाए इतिहास को तक रहे हैं..! 

वास्तव में भारत के बुरे दिनों की शुरूआत मोदी-युग का पर्यायवाची बन सकता है... हमे कदापि नहीं भूलना चाहिए "नोटबन्दी" का भीषण-अलोकतांत्रिक-निर्णय(जो नितांत अदूरदर्शिता अथवा संकीर्ण-स्वार्थ का परिणाम था) जिसने इस राष्ट्र का आर्थिक-स्वाबलंबन तहस-नहस कर के रख दिया..  छोटे-छोटे गुल्लक अपनी ही कमाई ज़रा सी दौलत का मकबरा बन कर रह गए... और जिन ऊँचे दावों के साथ(भ्र्ष्टाचार मुक्त भारत) इस अविवेकि-निर्णय को लिया गया था वो सब दावे टाँय टाँय फिस्स होते गए... भ्र्ष्ट धनाढ्य वर्ग और धनाढ्य होने लगा जबकि मध्यम वर्ग निम्म और निम्म्वर्ग गरीबी रेखा के नीचे पहुँच गया... बैकों के समक्ष पंक्तियों में कतारबद्ध जनता अपने ही धन का विनाश देखते हुए मरती रही....किसी की बेटी की डोली आंगन में अर्थी बन गई... तो कोई अपने जीवन भर की कमाई को रद्दी होता देख ह्रदयाघात से मर गया... एक अनपढ़ और गंवई राष्ट्र में जहाँ "कथरी में नोट" सिल कर रखने की अवधारणा रही हो वहाँ "तुगलकी फ़रमान" रातोरात ले आना की "आज से 500/1000 के नोट बन्द किये जाते हैं"....उतना ही अप्रत्याशित था जितना एक सुबह "आपात काल" की घोषणा...किन्तु कई मामलों में यह उससे भी कहीं घातक सिद्ध हुआ क्यों कि यह सामान्य बात नही थी यह एक आर्थिक धोखा था...संविधान के स्वरूप के कुछ हद तक विरुद्ध... और एक प्रच्छन्न-नरसंहार... इसका उत्तरदायी यदि कोई था तो मोदी-सरकार थी... परन्तु व्यवसायी-मीडिया का एक बड़ा अंग इसे "महान-निर्णय" बताते हुए जनता की आँख में धूल झोंकता रहा...जबकि इसी विपत्ति में "कोढ़ पर खाज" की तरह अनियोजित "जीएसटी-क़ानून" आया जिसने भारतीय-बाज़ार का भट्टा बिठा दिया.... किन्तु "क्रूर-व्यवसायिक-मीडिया" द्वारा जनता की आँख में झोंकी गयी यह धूल इतनी भयंकर थी कि अगले चुनाव तक भी लोग आंखें न खोल सके(कुछ आज भी उस धूल से ग्रस्त हैं)... और नरेन्द्र मोदी पुनः लौट आये ... कहीं बड़े बहुमत से लौट आए... भक्त प्रसन्न थे पर भाग्य रूष्ट था... वैसे भी भारत से भाजपा का भाग्य कभी मिला नहीं... पिछली बार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व की सरकार को आर्थिक-सामरिक मोर्चे पर मुँह की खानी पड़ी थी..."शाईनिंग-इंडिया" के इश्तेहार में भारत प्याज और दाल को तरस गया था... इस बार भी जबतक "सबका साथ-सबका विकास" का नारा भारत में बदलाव के बड़े बड़े इश्तिहार चिपकता... विनाश के भयानक बादलों ने विश्व को घेर लिया... "अमानव-कृत-विष" अर्थात "कोरोना वायरस" चीन के वुहान से निकल कर किसी फूहड़ अफवाह की भाँति पूरी दुनिया पर छा गया..हज़ारों मील दूर के यूरोप और अमेरिका उसके घेरे में बन्द थे तो भारत तो फिर पड़ोसी ही था... फिर इस देश के महान शाषक को घर से अधिक बाहर की चिंता थी... "नमस्ते-ट्रम्प" और मध्यप्रदेश में सरकार उलटने की अदम्य-इच्छा ने यह होश ही नहीं होने दिया कि चीन से नारकीय-राक्षस भारत मे आ रहा है... न सीमाएं सील की गईं न चिकित्सा व्यवस्था को बढ़ाने का प्रयास... बस जब पानी नाक से ऊपर हुआ तो आनन-फानन मे "देश-बंदी" कर दी गई... ताली-थाली पीट कर उत्साहवर्धन किया गया... लोगों को लगा कि मोदी जी हैं तो कोरोना दो- हफ्ते में नष्ट हो जाएगा... किंतु यह हुआ नहीं... वह बढ़ने लगा... रात-दिन रेडियो- टीवी मृत्यु की खबर भौंकने लगे...हर आदमी डर कर घर में छुपने लगा... लोग अपने मरे सम्बन्धियों की लाश भी देखने को तरसने लगे... न हस्पताल में कोई व्यवस्था न सरकार की कोई स्पष्ट-योजना... सबसे आखिर में बन्द होने वाली "रेल" सबसे पहले बन्द की गई... परिणामतः निर्धन और अनपढ़ भारत मे त्राहिमाम त्राहिमाम गूँज उठा... मज़दूर सर पर अपनी गठरी उठाए हज़ारों मील का पैदल सफर करने लगे... भूख-प्यास-धूप-बीमारी से सड़क सड़क गिर कर मरने लगे... पर नरेन्द्र मोदी की सरकार को न कुछ दिखता न सुनाई देता(या सुन के अनसुना किया जाता क्यों कि विकल्प था ही नहीं कुछ) इस प्रकार यह एक सामुहिक नरसंहार ही कि दूसरी बार  स्थिति बनने लगी... अंततः सरकार को दबाव में आ कर कुछ रेलें चलानी पड़ीं... पर तबतक बहुत से प्रवासी रोग के संवाहक बन चुके थे... और वो इस वायरस को "सरकारी-मूर्खता" के चलते छोटे-गाँव व कस्बों तक ले आने लगे... वह गाँव जहाँ रैबीज का टीका तक उपलब्ध नही हो वहाँ "अनजाने-रोग" से लड़ना तो असंभव ही था... और सरकार केवल मन की बात में मग्न थे... अतः जब महामारी ज़रा सा सुस्ताने में लगी थी तब नरेन्द्र मोदी धड़ा-धड़ अपने पुराने शौक "विदेश यात्रा" में लग गए थे... इधर पाँच राज्यों में चुनाव होना था जिनमे बंगाल सबसे कीमती राज्य था... इस कारण धन-जन बल का पूरा प्रयोग इन चुनावों में झोंक दिया गया... इधर नरेंद्र मोदी अपने स्वरूप को नई गढ़त देने में लगे थे...उधर कोरोना अपने दूसरी लहर के साथ उठ खड़ा हुआ था... इस बीच लगभग 8 माह गुज़र चुके थे परंतु न टीकाकरण का उचित प्रयास हुआ न चिकित्सा केंद्रों को बनाने की ही कोशिश हुई और तो और "ऑक्सीजन" उत्पादन का भी कोई काम देश के घनत्व और जनसंख्या को देखते नहीं हुआ... यहां तक कि बंगाल विजय की भूख इतनी अधिक थी कि वहाँ "आठ-चरणों" मे चुनाव रखवा कर महामारी के विस्तार का सामना जुटाया गया...उस पर "हरिद्वार कुंभ" का भव्य आयोजन करने का अदूरदर्शिता पूर्ण निर्णय इस "छुतहा-रोग" को शिवालिक और हिमालय के पवित्र वातावरण में भी ले कर पहुँच गया... वह तो भला हो साधु-संघ और जूना अखाड़े का जिन्होंने स्वयम ही कुंभ को प्रणाम कर देने का "साहसिक-निर्णय" ले कर देश को और डूबने से बचाया... परन्तु इतनी बड़ी महामारी के काल मे प्रधानमंत्री का ताबड़तोड़ चुनाव प्रचार अत्यंय निंदनीय और गैरज़िम्मेदाराना था... अतः देश मे चिकित्सा व्यवस्था मुँह के बल गिर पड़ी... परिणामतः जितने लोग रोग से मरे उससे कहीं अधिक लोग "बिना चिकित्सा" के मरने लगे... यह मृत्यु नहीं विशुद्ध-हत्याकांड था जिसका दोषी समय अवश्य खोज निकलेगा... किन्तु जो सत्ता में है उसे भी उत्तरदायी तो होना ही होगा... वह इससे बच नहीं सकता...! 

नरेंद्र मोदी के समर्थक निरंतर यह नारा देते हैं कि स्थिति चाहे कितनी विकट हो राष्ट्र की... पर मोदी बेदाग़ हैं... देश चाहे आर्थिक रूप से भूमिगत हो गया हो पर मोदी बेदाग़ है... अनियोजित-शासन ने देश भर में लाशें बिछा दीं एक महामारी के चलते किन्तु मोदी बेदाग़ हैं... तो मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि यदि आज भी मोदी बेदाग़ हैं... तब तो  आपातकाल और सिक्ख आतंकवाद के लिए इंदिरा गाँधी भी बेदाग़ कही जा सकती हैं... चीन से पराजय के लिए नेहरू को बेदाग़ कहना चाहिए और  देश का सोना गिरवी रखने की दुहाई दे कर चंद्रशेखर को दागदार ठहराने का किसी को अधिकार नहीं होना चाहिए... और यदि ऐसा नहीं है तो फिर आज मरघट बने शोक-संतप्त राष्ट्र के लिए निःसन्देह देश के अनेक मोर्चों पर असफल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दामन पर पड़े रक्क्त के धब्बे देखते हुए उन्हें इन महान त्रासदियों हेतु उत्तरदायी समझना चाहिए...यूँ भी जन नायकों के दामन पर क्षुद्र अपराधों के नहीं "विनाशक-विचारों और निर्णयों" के ही धब्बे मिलते हैं... आज आवश्यकता है  गलत को गलत कहने के सामर्थ्य की... इस समय तो मुझे नरेंद्र मोदी का मनमोहन सिंह पर किया तंज याद आता कि "बाथरूम में रेनकोट पहन कर नहाना तो कोई इनसे सीखे!"... वास्तव में यह कला मनमोहन सिंह को कितनी आती थी यह तो जाँच का विषय है पर नरेंद्र मोदी इस कला में अतुलनीय हैं यह बात आज अक्षरसः सिद्ध हो चुकी है..! 

वस्तुतः आज यह महान राष्ट्र आर्थिक-दासत्व की ओर बढ़ता जा रहा है... धर्म का शोर मचाती हुई सरकार ने धर्म का जैसा विनाश किया है वह भी कालांतर में जनता के समक्ष ही होगा... परन्तु जो बात सबसे भयानक है वह यह कि नरेंद्र मोदी की सरकार ने इस परम लोकतांत्रिक राष्ट्र से उसका ध्येय (स्वतंत्रता और समता) ही छीन लिया है... जिसका परिणाम कितना घातक होगा यह केवल समय ही बताएगा... वर्तमान में तो मै केवल यह निवेदन ही कर सकता हूँ राष्ट्र से की प्रधानमंत्री भी मनुष्य ही है... उसे देवताओं में मत शामिल करें... उससे प्रश्न खड़े करें... उसकी आलोचना करें... उसको सुझाव दें... और यदि वह तब भी न समझे तो आप समझदार बन जाएं... क्यों कि --
"नहीं समझे अगर तुम आज ऐ हिन्दोस्तां वालों/
तूम्हारी दस्ताने भी न होंगी, दास्तानों में...!' 

12 मई 2021
ओमा The अक्©

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