पापा टाटा

पापा टाटा
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"पापा टाटा... पापा टाटा...पापा टाटा... ये आवाज़ तब तक मेरे और मेरी बहनों की मुँह से निकलती रहती थी जब तक माथे पर भस्म-त्रिपुण्ड लगाए...मुँह में अम्मा के हाथ से लिया सादा-पान दबाए...झक सफ़ेद खादी का कुर्ता-पायजामा पहने... सर पर अंडाकार-टोपी लगाए... और आंखों पर रेबन-ब्लेक-चश्मा लगाए... अपनी "बजाज सुपर" स्कूटर पर बैठे मुड़ मुड़ कर देखते पापा गली से मुड़ कर आँखों से ओझल नही हो जाते थे...! 

'आदमी समय के चूल्हे पर रखी हंडिया में उबल रहा है!'....  रविवार की सुबह है... शहर में "कोरोना" के नाम पर "लॉकडाउन" है... ये दो मनहूस शब्द 2 बरस से देश को सता रहे... अचानक खिड़की के दरवाजे पर दस्तक देते हुए "सिंह साहब" बोल पड़े - "हितेश जी! आपका फोन नही उठ रहा! गुरु जी के पापा की तबियत बिगड़ रही...!"... हितेश तो नही सुन सका... मैंने ही सुना... और जाग गया! 

"कैलेंडर पर तारीख़ पलटती है समय नहीं!'... तब मैं बहुत छोटा था... कोई 6-7 साल का... और मूझसे डेढ़-साल के अनुपात से अंतराल में छोटी मेरी तीन बहनें... सबसे छोटी तो गोद मे थी... ये उन दिनों की बात है जब संसार इतनी जल्दी में नही था... शहरों में पक्के मुहल्ले होते थे... जिनके घरों में आंगन, दालान, छत, छज्जे, दुच्छति होते थे... और साथ में अक़्सर होते थे "बरामदे".... जिन बरामदों में लगे होते थे हरे-भरे गमले... लटके होते थे तोता-चिड़िया के पिंजर... बरामदे में होती थीं जालियां ताकि रोज़ सुबह-शाम आने वाले बंदर इनकी हरियाली न नष्ट कर दें... क्यों कि ये बरामदा बड़े काम का था... अखबार पढ़ने से लेकर चावल फटकने तक कई काम यहीं होते थे.... और तो और इश्कबाज़ी का भी ये पक्का ठिकाना था... पर सबसे बड़ा काम तो था इसका "चुगली और गप्प".... वास्तव में ये बरामदा एक साथ मुहल्ले के कई घरों को "कनेक्ट" करता था...और ऐसा ही एक बरामदा था हमारे घर में... जिसकी खिड़कियों को खोल कर हम लोग उस वक़्त हाथ निकाले पापा को टाटा-बाए करते थे जब बनारस में लोग "टाटा-बाए" को बड़ा अभिज्यात माना करते थे... और हम लोग तो थे भी अभिज्यात(एलीट)... क्यों कि हमारे पिता पण्डित हरिहर नाथ शास्त्री... जो संस्कृत और कर्मकांड के विद्वान होने के साथ ही... सरफ़ा-मंडी के बड़े व्यापारी और "भारत सेवक समाज" के राष्ट्रीय महामंत्री थे..."जनकल्याण परिषद" के राष्ट्रीय महामंत्री और "साम्प्रदायिक सद्भावना समिति" के संस्थापक-अध्य्क्ष... कुल मिला कर मेरे पिता एक सामाजिक-प्रभाव वाले पुरुष थे.. और यह प्रभावशाली व्यक्तित्व उन्हें विरसे में नही मिला था... बल्की उन्होंने इसे बड़ी मेहनत और त्याग से कमाया था...! 

'सब अपने संस्कार भोगते जन्म लेते हैं!'... उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल में एक जिला है "आजमगढ़".... आज से कोई 77 बरस पहले... यानी 1943 के मार्च महीने की 13 तारीख को... आज़मगढ़ जिले के "दोहरीघाट" इलाके से लगे गाँव "गोधनी" में मेरे पिता "हरिहर नाथ उपाध्याय" का जन्म हुआ(मूलतः ये मध्यप्रदेश के "इटारसी" के पराशर-गोत्रीय "पाण्डे" ब्राह्मण-वंश था... जो कोई पांच-पीढ़ी पहले यहाँ आ कर बस गया था)... चुँकि पापा बचपन से बहुत लड़के और तुनकमिज़ाज़ थे इस लिए दादी यानी उनकी माँ उन्हें घर मे "झिनकू" बुलाती थीं... ये एक खेतिहर परिवार था... ज़मीदारी का खण्डहर बनता... दादा(धनपत उपाध्याय) को गीत-संगीत का जनून था... सो वो काम धंधा छोड़ कर भजन-कीर्तन में समय बिताते थे... घर पर हुक्म दादी का चलता था... और वो चाहती थीं की पापा भी घर के काम समझें... पर पापा को तो पढ़ने की धुन थी... वो भी अपने चाचा जो "पवहारी-संत" थे उनकी तरह संस्कृत... सो एक दिन जब घर मे बड़ी कहा सुनी हुई... तो मात्र 7-8 वर्ष् की उम्र में वो "गोधनी" से मुबारकपुर होते हुए "काशी" आ गए... कुछ दिन अपने चाचा के साथ "शारदा विद्या मंदिर" और "दाऊ जी मंदिर" में रहे और विद्याध्ययन किया... लेकिन वहाँ उनसे नौकर की तरह हो रहे व्यवहार से व्यथित हो कर पवहारी-चाचा का घर छोड़ कर भाग गए... और विश्वनाथ मंदिर में आरती के समय डमरू बजाने का काम शुरू कर दिया... 50 पैसे रोज़ मिलते... अन्नपूर्णा के दरबार मे भोजन... और एक गुरु जी से शिक्षा... इस तरह उनको काशी ने अपना लिया और उन्होंने काशी को...!
श्रद्धा और तन्मयता ही सफलता का सूत्र है!'...नवयुवक होते होते हरिहर नाथ उपाध्याय शास्त्रार्थ प्रतियोगिताओं में निरंतर विजयी होने लगे... वह रात रात भर "फ़रवी"(मुरी) खा कर और शिखा में सुतली बांध कर शास्त्रों को कंठस्थ व हृदयस्थ कर रहे थे ... उनकी मेधा से प्रसन्न हो कर "युग-ऋषि" स्वामी करपात्री जी महाराज ने उन्हें अपनी शरण मे ले लिया और उन्हें अपने नव-विश्वनाथ मंदिर का मुख्य-पुजारी बना दिया...इसके साथ ही कई तांत्रिक कर्मकांड भी सिखाए... जिनका प्रयोग "ब्रह्मराक्षस" को पटकने तक में पापा ने किया..! साथ ही साथ गायत्री को सिद्ध करके हरिहर नाथ उपाध्याय ने गहन आध्यात्मिक-चित्त को प्राप्त कर लिया... वह तो ब्रह्मचारी हो जाते किन्तु जीवन में वसंत लिए किसी मोड़ पर मेरी अम्मा यानी "विद्यावती देवी" उनकी प्रतीक्षा कर रहीं थीं...! 

'भाग्य बड़ी बात है'... पापा को हमेशा से भाग्य पर विश्वास था... बात उन दिनों की है जब दादी को गर्भाशय में रसौली हो गई थी... पापा उनको इलाज के लिए बनारस लाने वाले थे... तब पापा की उम्र कोई 19 साल की थी... और वो उन्ही दिनों अपनी "भउजी"(भाभी) को मिलने उनके मायके भावनपुर जाते रहते थे... गोधनी" के पास ही एक गाँव है "भावनपुर" जो "घोसी" में पड़ता है... उसी गाँव में मेरी ताई का मायका था... और उनकी छोटी बहन का नाम "विद्यावती"... जो मेरे पापा की पहली और अंतिम पसन्द थीं... पापा ने नाना से बात की... वो राज़ी भी हो गए... पर पापा की शर्त थी की- "अगर मेरी माँ  बच गई और स्वस्थ हो गई तो मैं इन्ही से विवाह करूंगा!"... और भाग्यवश दादी का ऑपरेशन सफल हुआ और उनको स्वास्थ्य लाभ होते ही... गोधनी से बारात घोसी पहुंच गई...चिरंजीवी हरिहर ने सौभाग्यवति विद्यावती की माँग में सिंदूर डाला और लकड़ी का लाल सिंधौरा(विवाह में दुल्हन के लिए सिंदूर रखने का बड़ा सा डिब्बा) यह कहते हुए थमा दिया कि अब मैं जीवन भर तुम्हारे साथ ही रहूंगा!... इस प्रकार  विद्यावती भावनपुर से गोधनी आईं और तब उनको नया नाम मिला "देवता"... पापा ताउम्र उन्हें इसी नाम से बुलाते रहे- "देवता बाबा"...! 

'वैदिक-शिक्षा ही जीवन का अमृत है'... पापा यही मानते रहे... "सम्पूर्णानन्द संस्कृत कॉलेज" से "शास्त्री" की डिग्री लेने के साथ मेरे पापा बन गए थे  "पण्डित हरिहरनाथ शास्त्री".... उनको सारी उम्र मैंने संस्कृत बोलते पाया... कोई भी भाषण या संवाद बिना संस्कृत तो समाप्त हो ही नहीं सकता... पूर्व मुख्यमंत्री  नारायण दत्त तिवारी को अपने जन-कार्यक्रम में  संस्कृत के भाषण से पापा ने सम्मोहित कर लिया... अधिवक्ता और कवि डॉ• जगदीश तिवारी की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी पर लिखे अंग्रजी खण्ड-काव्य का संस्कृत-संस्करण भी मेरे पापा यानी पण्डित आ• हरिहर नाथ शास्त्री द्वारा "ज्योतिर्मयी-इंदिरा" के नाम से हुआ जिसे प्रदान करने पापा प्रधानमंत्री-निवास नई दिल्ली गए... इंदिरा जी उसे देख कर अभिभूत हुईं... कुछ समय पश्चात पापा को प्रधानमंत्री-कार्यलय में नौकरी का प्रस्ताव आया... परन्तु पापा ने यह कह कर पत्र फेंक दिया कि "संसार काशी में विश्वनाथ-शरण रहने के लिए मरता है और मैं काशी का त्याग कर दूं धन-सत्ता के लोभ में यह नहीं होगा!"... पापा का संस्कृत और संस्कारों के प्रति इतना आग्रह था की अपने विद्यालय-काल के मित्रों के साथ वह हर समय मिलने पर संस्कृत में ही वार्तालाप करते थे... विशेष कर "प्रिंसिपल साहब" के साथ... अंग्रेजी उनको म्लेच्छ भाषा लगी अतः जीवन भर वो उससे दूर रहे... उन्हें लगता था कि भाषा का संस्कार व आचार से गहरा सम्बन्ध है अतः भाषा भ्रष्ट नही होनी चाहिए..! 

'धन वितरण के लिए है धर्म संग्रह के लिए..!'... पापा को ईश्वर ने बहुत कुछ दिया... मात्र 25 वर्ष् का होने तक वह धनवान होने लगे... विद्यावती (मम्मी) से विवाह के पश्चात कुछ ही समय में अपने गुरु के आदेश से उन्होंने व्यवसायिक रूप से कर्मकांड का परित्याग कर दिया (किन्तु अपने और अपने इष्ट-मित्रों के घर आजन्म कर्मकांड करते रहे) और "सरफ़ा"(सोने-चांदी-गहने) के व्यवसायी हो गए... विवाह के 5 वर्ष् के उपरांत उन्हें पहला पुत्र प्राप्त हुआ (मेरा भाई गोपाल/बमभोले)... जन्म के उपरांत उसे न्यूमोनिया हो गया... जान पर बन गई... ऐसे में शिवभक्त शास्त्री जी (पापा) ने "राजमन्दिर" मुहल्ले के एक जीर्ण-शीर्ण किन्तु सिद्ध मंदिर में बैठे शिवलिंग के समक्ष प्रण लिया कि यदि उनका पुत्र स्वस्थ हो जाएगा तो वह इस मकान (जो उन्होंने मात्र दो-माह पूर्व खरीदा था) को बनवाने से पहले मंदिर का  जीर्णोद्धार करेंगे... हस्पताल पहुंचने पर भाई खिलखिलाता मिला... पापा में प्यार से उसे "बमभोले" नाम दिया... और मकान को खरीद कर मंदिर का जीर्णोद्धार किया... यह वही मंदिर और मकान था जहाँ मुझे पैदा होना था...! इस मकान में आने के बाद पापा ने बहुत धन कमाया और अपने बड़े भाई की शादी की(पापा 4 भाई एक बहन हैं)... छोटे भाइयों को पढ़ाया, व्यापार करने को धन दिया...बहुत सी गाड़ियां खरीदीं... गाँव में दादा की गिरवी पड़ी ज़मीनों को छुड़ाया... दादी का घर बनवाया... मंदिर,पर्व और अन्य अवसरों पर दान-पुण्य किया... अपने निर्धन सम्बन्धियों की हर प्रकार से सहायता की (तन-मन-धन/औषधी/विवाह)... मेरे घर मे अतिथियों का जमघट रहता था... जिनकी सेवा में मेरी माँ दिन-रात लगी रहती थीं... पापा को जितना प्रेम सम्बन्धियों से था उससे कहीं अधिक पड़ोसियों और मित्रों से (यद्यपि उनमें अधिकांश खराब समय पर अदृश्य ही रहे)... जिनके लिए भी उनका ह्रदय और पॉकेट दोनों खुला रहता था... पापा ने धन को केवल धन समझा उससे अधिक कुछ नहीं... वह यह मानते रहे कि भगवान् ही दाता है... और उसका द्वार कभी बन्द नहीं होता.! 

'दूसरे की पीठ पर नहीं अपनी छाती पर भरोसा करो..!'... यह बात तब की है जब मैं कोई 8-10 साल का था... मेरे पापा बहुत अच्छे पण्डित या व्यापारी होने के साथ अद्भुत खिलाड़ी भी रहे... उनको कब्बडी और लाठी-भाजने में पकड़ना लगभग असंभव था... पर उनका सबसे बड़ा शौक था तैराकी... वो अद्भुत तैराक रहे... अपने बचपन मे ही उन्होंने ने काशी की गङ्गा को रोज़ आरपार तैर कर करना शुरू कर दिया जो अधेड़ावस्था तक जारी रहा... उन दिनों गर्मी का मौसम बनारस में गङ्गा का मौसम बन जाता था... हर बनारसी अपनी तपिश मिटाने गङ्गा के आसपास ही भटकता था... फिर मैं तो था ही "छोरा गङ्गा किनारे वाला"... ब्रह्मघाट जहाँ मेरा घर था... वो बनारस का सबसे सुंदर और गहरे घाटों में एक था... तब गङ्गा मैली नहीं नीली हुआ करती थी... पानी इतना साफ की भीतर डुबकी लगाओ तो ऊपर का आकाश साथ साथ डुबकी लगता था... गर्मी की छुट्टियों में पापा हम लोगो को रोज़ ही गङ्गा जी ले जाते थे... और साथ ही तैरना सिखाते थे... मेरे भाई को भी तैरना आ गया था... मुझे बस छप-छप... लेकिन पापा की पीठ पर लेटे छप-छप करते हुए मैं रोज़ ही गङ्गा के उस पार इस पार आता... और लोगों में रौब डालता कि "मैं तो गङ्गा तैर कर पार करता हूँ"... एक रोज़ पापा ने वह सुन लिया... अगले दिन सुबह जब वो गङ्गा जी गए तो मुझे पीठ पर लिटा कर तैरने लगे... उनके साथ ही हमारा नाव वाला.. "कनैहिया मल्लाह" भी तैर रहा था... मध्य-गङ्गा मे पहुंचने पर पापा एकदम से उल्टे हो गए... और मैं गड़ाप से पानी में... उफ़्फ़! पानी मे डूबते हुए आसमान कितना नज़दीक लगने लगा था... मेरे मुंह मे पानी की वो गन्ध अबतक बाकी है... मैं छपछपाते-छटपटाते जब पापा को पकड़ना चाहता तो पापा दूर हो जाते मैं जब डूबने लगता तो पापा झट से ऊपर कर देते... ऐसे ही किसी "डॉलफिन" की तरह मुझसे खेलते हुए वो आगे बढ़ते रहे और बढ़ता रहा मैं पीछे पीछे... घाट के करीब पहुंच कर उन्होंने मुझे गोद में उठा लिया और घाट की सीढ़ी पर बिठा दिया... मैं गुस्से और डर से लाल-पिला था... रोते हुए मैंने पापा को थप्पड़ लगाने शुरू कर दिए... हँसते हुए पापा में मेरा बदन पोछा और गोद मे उठा कर कहा-- "अब! कहना कि तुमने तैर के गङ्गा पार किया है!"... उस दिन ही मैंने जान लिया था कि नदी आप ही तैर के पार की जा सकती है किसी भी आश्रय पर नहीं! 

"कमाना है तो मनुष्य कमाओ !"... मेरे पापा शास्त्रीय-कर्मकांड को ले कर अत्यंत कट्टर रहे हैं... किन्तु मानवीय सम्बन्धो में उन्होंने जाति-सम्प्रदाय को महत्व न दे कर हमेशा व्यवहार को महत्वपूर्ण माना... और इसी आधार पर उनके जीवन मे रिश्तेदारों से कहीं अधिक मित्रों/पड़ोसियों या सामाजिक सम्बन्धो का महत्व रहा... अतः उनका सामाजिक-घेरा अत्यंत वृहद रहा... परिणामतः उन्होंने दो-बार विधानसभा-चुनाव भी लड़ना स्वीकार किया (यद्धपि दोनों बार निर्दलीय लड़े और ज़मानत जब्त हुई) पर किसी दल के दलदल में नहीं फँसे... उनको जो रुचता यदि वह नैतिक है तो अवश्य करते रहे चाहे उसमे कुछ भी व्यय हो जाए... न मालूम कितने गरीब हिन्दू-मुसलमानो को उन्होंने हर प्रकार की मदद पहुंचाई... खासतौर पर निर्धन-कन्याओं के विवाह में उनको अपनी भागीदारी करना सबसे अधिक भाता था... इसके अतिरिक्त यज्ञ/अनुष्ठान/गरीब बच्चों की शिक्षा/ विद्यालयों को दान/गरीबों का इलाज करवाना/ पक्षियों को आज़ाद करना और अन्य प्रकार की समाज सेवा वह पूरी जवानी और प्रौढ़ होने तक करते ही रहे... और इसमे कभी जाति-सम्प्रदाय का भेद नही किया... 90 के दशक में जब पूरा भारत साम्प्रदायिक-विद्वेष के चरम पर था तब पापा के सर्वाधिक-मुस्लिम मित्र बनें... क्यों कि पापा के लिए मंदिर-मस्ज़िद से कहीं ऊपर ईश्वर के बनाए जीव रहे हैं... यही कारण है कि दंगे के समय पापा "शान्ति-दूत" बने शहर भर में सभा करते रहते थे.. यही कारण था कि उनकी लोकप्रियता हिन्दू-मुस्लिम दोनों समाजों में एक प्रकार से बढ़ी हुई थी... काशी सरफ़ा मण्डल का चुनाव तो कोई जितने की कल्पना भी नही कर सकता था बिना "हरिहर महाराज" के आशीर्वाद के.... पापा में अभिव्यक्ति का गुण भरपूर था... चाहे वह भाषण हो या तर्क पापा अपनी बात को स्पष्ट समझाने में पूर्णतः सक्षम रहे... निर्भय होना भी इसमे उनकी बहुत सहायता करता... समय के अतिरिक्त अन्य कोई भी उन्हें नही भयभीत कर सकता था... जब मैंने अपना व्यवसायिक जीवन शुरू किया... तो उनको पता लगने पर उन्होंने केवल एक बार कहा कि तुम बाजार में क्या कमाने निकले हो?.. मैंने कहा धन!.. तो वो बोले - "धन कोई भी कमा लेता है बड़ी कमाई है इंसान... इंसान कमाओ... इंसान धन ला सकता है धन इंसान नहीं ला सकता है...!" और यह बात मुझे एक ही पल में समझ आ गई..! 

"यौवन ह्रदय में बसा हरियाला वन है.. जो समय के साथ घना होता है"... पापा जितने तुनकमिज़ाज़ थे उतने ही रूमानी भी... पर उनका सारा "रोमांस" केवल एक व्यक्ति के लिए समर्पित रहा.. मेरी अम्मा(बचपन मे हम लोग मम्मी नही अम्मा कहते थे) यानी उनकी "देवता"... मुझे याद है प्रायः जब अम्मा  अपने बाल धुल कर उनके सामने आती तो वह एक ही गीत दोहराते-- "न झटकों ज़ुल्फ़ से पानी/ ये मोती फूट जाएंगे/ तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा/ मग़र दिल टूट जाएंगे.."... यह गीत जो उन्होंने कदाचित अपने विवाह के समय से जो गाना शुरू किया वह जीवनपर्यंत गाते रहे(यद्दपि इसके अतिरिक्त भी कई गीत वो अम्मा को सुनाते रहते "तुम्हारा चाहने वाला ख़ुदा की दुनिया मे/ मेरे सिवा भी कोई और हो ख़ुदा न करे"... "चौदहवीं का चाँद हो/ या आफ़ताब हो"... "ओ मेरी जोहराज़बीं/ तुम्हे मालूम नहीं/ तू अभी तक है हँसी और मैं जवां/ तुझपे कुर्बान मेरी जान मेरी जाँ/") हम लोगों को भी बचपन में वो कई गीत सुनाते जैसे -- "हम भी अगर बच्चे होते/ नाम हमारा होता बबलू-डब्लू" या "चुन चुन करती आई चिड़िया/ दाल का दाना लायी चिड़िया" या "मेरे पैरों में घुघरू बन्धा दे/तो फिर मेरी चाल देख ले" या "बाबुल की दुआएं लेती जा/ जा तुझको सुखी संसार मिले"(बड़ी बहन प्रभा के लिए प्रायः गाते) या "आज कल में ढल गया/ दिन हुआ तमाम/ तू भी सो जा सो गई/ रंग भरी शाम".... पर सबसे अधिक जो गीत गाया वो था "तुझे सूरज कहूँ या चंदा/ तुझे दीप कहूँ या तारा/ मेरा नाम करेगा रौशन/ जग में मेरा राजदुलारा".... और इन गीतों का शौक़ उन्हें इस क़दर रहा कि हमारे घर मे "रिकॉर्डप्लेयर" और रिकॉर्ड्स की भीड़ थी... फिर "टेपरिकॉर्ड" और "कैसेट्स" इकट्ठा हो गए... कुल मिला कर मेरा सिनेमा को ले कर ज़ौक़ और समझ सब मेरे पापा ने ही मुझ में बोया और अम्मा ने उसका पोषण किया... पापा रोमांटिक तो थे पर कभी "उच्छश्रंखल" नही हुए... उन्हें मर्यादाओं का बहुत पास था... वो "ईव टीजिंग" और इस प्रकार की किसी भी हरक़त के सख़्त विरोधी थे... उनके लिए प्रेम ईश्वरीय वरदान था और किसी मंदिर के प्रसाद की तरह पहले माथे लगा कर भोग करने की वस्तु... प्रेम में उनके आदर्श कृष्ण नही भगवान् शंकर थे..! 

" संसार मे हैं तो समय को भोगना है.. अच्छा या बुरा हम चुनते हैं!"... पापा कभी भी मेरी तरह 'नियतिवादी' नही रहे... उन्हें कर्मगति पर विश्वास था... और यह हमारे बीच प्रायः बौद्धिक-संघर्ष का कारण बनता... हम सब जानते थे कि पापा की कुण्डली ७८ वर्ष् तक के फलादेश में लिखी थी... "आगे हरि इच्छा"... ऐसा लिख कर ज्योतिषाचार्य ने कलम बन्द कर दी थी... पापा अपना जीवन बहुत ही स्वस्थ और सुचारू व्यतीत कर रहे थे किन्तु 2014 के अंतिम महीने में... क्रिसमस के दिन... उन्हें "सीवियर हार्ट अटैक" पड़ा... भाग्य से मैं घर पर था और भाई भी... मुझे उनको देखते ही ख़तरे का आभास हुआ... जबकि पापा और भाई दोनों इसे "वात प्रकोप" मान रहे थे (वैसे आयुर्वेद में हृदयाघात भी वात प्रकोप ही है)... पर मैंने उन्हें हस्पताल ले जाने की ज़िद की... हस्पताल जाते ही पता लग गया कि यह हार्टअटैक है... बनारस में 2 या 3 हो ऐसे सुविधाजनक हस्पताल थे जिन पर इस अवस्था मे विश्वास किया जा सकता था... जिनमे एक मे पहुंचने पर बेड न होने की जानकारी मिली... ख़ैर! "डॉक्टर राहुल मोदी" के प्रयास से एक दूसरे हस्पताल में इलाज मिला... पर अगले दिन डॉक्टर ने कहा कि हालत ठीक नही दिल नब्बे प्रतिशत तक बेकार सा हो गया है तुरंत "बाई पास सर्जरी" की आवश्यकता है... इस भयाक्रांत करने वाले पलों में आदरणीय उदय प्रताप सिंह किसी देवता से आगे आए... उन्होंने तुरंत ही दिल्ली "एम्स" में इलाज की व्यवस्था कर दी(जो बहुत मुश्किल होता है)... एक दिन बाद हम लोग दिल्ली थे... "एम्स" में डॉ• राकेश यादव ने पापा की एंजियोग्राफी की और तुरन्त ही पाँच "स्टन्ट" डाल कर एंजियोप्लास्टी कर दी... पापा का जीवन तो बच गया पर "वो वलवले कहाँ, वो जवानी किधर गई"... पापा धिरे-धीरे देह का बल खोने लगे... सौ प्रकार की बंदिशें... दिन भर में एक लीटर पानी/ सदा भोजन/ बाहर निकलना लगभग बन्द/ व्यायाम बन्द/ रह रह कर हस्पताल... दवाइयां, बोतल, सुइयों को चुभन... एक बार तो मैं मुंबई था और उनकी हालत गम्भीर हो गई... मेरे घर से लगातार फोन आने लगे...सब शुभचिंतक मुझे हवाईजहाज से आने की सलाह दे रहे थे... मामला 3-4 घण्टे का लग रहा था... पर मैं गाड़ी से निकला और सबसे कोई खबर मुझे मेरे पहुँचने तक न देने को कह दिया... 30 घण्टे बाद मैं गोलू (आशीष श्रीवास्तव) के सहारे बनारस पहुंच गया... वहाँ जाने पर पता लगा पापा ठीक हो रहे हैं... मेरी तक़दीर अच्छी थी मैं पापा को सामने बात करते देख रहा था...इस घटना के बाद काफ़ी दिन वो स्वस्थ रहे पर फिर वही हस्पताल और बीमारी... परन्तु न तो उन्होंने अपनी पूजा बन्द की (नवरात्रि में पाठ और जाप तक करते रहे)... न पुस्तकों का अध्यन... पढ़ते और सीखने की ललक उन्हें नया बना देती... निःसन्देह वह एक महान पुस्तक प्रेमी और स्वाध्यायी रहे... मुझमें जहाँ तनिक भी सीखने का सामर्थ्य नहीं रहा वहीं मेरे पिता को पढ़ने और सीखने का अंतहीन चाव था... मुझसे रूठ कर उन्होंने जीवन के छठे दशक में "ज्योतिष" सीखना प्रारंभ किया और मात्र कुछ ही वर्षों में अद्भुत ज्योतिष बन गए (हस्तरेखा और वास्तु)... कुल मिला कर वह सरस्वती पुत्र थे... अथवा उनके मंतव्य में "गायत्री पुत्र"...। 

"मौत का एक दिन मुअय्यन है"... इस बरस तेरह-मार्च को पापा अठहत्तर-वर्ष् के हुए... मेरा मन रह रह कर काँपता था... पूरे देश में "कोरोना" की दूसरी लहर आ चुकी है... मदांध-सरकार के  अविवेकि-निर्णयों (नोटबन्दी/जी एस टी/ जल्दबाजी में किया लॉक डाउन/ स्वास्थ सुविधाओं की घोर अनदेखी/ मेडिकल माफियाओं का प्रचार/ धूर्त व्यवसायिक कम्पनीयों की लूटपाट) ने पूरे राष्ट्र की कमर तोड़ रखी है... यह एक ऐसा काल है जब हम उस कहावत को बार बार चरितार्थ होते देखते हैं -- "आ बैल! मुझे मार"... ऐसे कुअवसर पर एक प्रचारित प्रसारित महामारी "कोविड-19" का आना और दोहराना करोणों जीवन लीलने वाला सिद्ध हुआ... इस बरस होली के आसपास मेरी तबियत बिगड़ गई... बात "वायरल" से "टायफाइड" और "कोविड-19" तक जा पहुँची... मैं तो हर "वायरल" में "आइसोलेट" कर जाता था... इस बार भी अपने आश्रम में "आइसोलेट" हो गया... घर जाना बंद... धीरे धीरे महीना होने को आया... मैं घर नही जा रहा था... स्वास्थ ठीक हो गया था पर कमज़ोरी बनी हुई थी... इसी बीच 14-15 अप्रैल को मम्मी(अम्मा) की तबियत थोड़ी खराब हुई... बेचैनी-कमज़ोरी... डॉक्टर ने देखा बताया पानी की कमी है... मैंने फिर भी पापा-मम्मी का कोविड टेस्ट करवा दिया... टेस्ट रिपोर्ट "निगेटिव" आया... फिर भी डॉक्टर अजय पाण्डे (जो देश के बड़े अच्छे हृदय-चिकित्सक हैं और पापा के डॉक्टर भी) से दवा पूछ कर मंगवा ली... सत्रह अप्रैल को पापा शाम से अनमने होने लगे... रात उन्हें नींद न आने की शिकायत हुई... भोर होते होते उनको घबराहट होने लगी... वो मुझे फोन करते रहे(पिछले 16-17 सालों से,वो रोज़ ही लगभग 2 बार मुझे फोन करते थे ये पूछने को की "खाना पीना हुआ?" बस! और फोन कट)... मैं फोन मौन करके सो रहा था... उनकी तबियत धीरे धीरे बिगड़ती रही... लगभग आठ बस तभी खिड़की पर दस्तक हुई... सिंह साहब की बात सुनते ही.. मेरे दिल मे सब बुरे विचार एक साथ ही आ गए... बनारस में उस दिन "लॉकडाउन" था... रविवार का दिन था...अधिकतर एलोपैथी डॉक्टर हस्पतालों से गायब चल रहे थे... कोई भी "रूटीन-ट्रीटमेंट" उपलब्ध नही हो रहा था... हर जगह "कोरोना के नाम पर हत्याकांड" फैला हुआ था... निःसन्देह! इस महामारी ने जितने लोगों को मारा उससे सौ-गुना अधिक लोगों को "व्यवसायिक-चिकित्सा-पद्धति" और मूर्खतापूर्ण शासन ने मार डाला.... मैं इन सब बातों को कुछ ही सेकेंड में सोच कर भयाक्रांत था... फिर मैंने भाई को फोन कर के हस्पताल ले जाने को कहा... पर भाई को भी "कोरोना भय" सता रहा था... और आम हिंदुस्तानियो की भाँति उसे पापा की घबराहट "गैस" की समस्या लग रही थी... मैंने फोन डॉक्टर सुरेश खन्ना को मिलाया... और उन्हें घर जाने को कहा... डॉक्टर खन्ना लगभग 30 मिंट में घर पहुँचे... पापा को देखने के बाद उन्होंने तुरंत हस्पताल ले जाने की नसीहत की... पापा का इलाज बनारस के चर्चित हस्पताल "गैलेक्सी" में होता रहा... अतः भाई उन्हें ले कर गैलेक्सी जाने को तैयार हुआ (यद्धपि वहां भी सिर्फ़ आपातकाल में देखने की सुविधा थी कोई बड़ा चिकित्सक या भर्ती की सुविधा नहीं उपलब्ध थी उस दिन) पापा अपने ही पैरों से चलकर "कार" तक पहुँचे... हर बार मम्मी को बगल में बिठा कर और पास में शिव-पार्वती का लॉकेट ले कर हस्पताल जाने वाले पण्डित हरिहरनाथ शास्त्री जी ने उस दिन वो लॉकेट घर पर ही छोड़ दिया (भूलवश या जानकर) और मम्मी को आगे की सीट पर बैठने को कहा... स्वयम पीछे लेट गए एक तकिया लगा कर... भाई गाड़ी ले कर तेजी से बढ़ने लगा..! 

"आज उंगली थाम के तेरी/ तुझे मैं चलना सिखलाउँ!"... बचपन में पापा मेरे बहुत अच्छे दोस्त थे... वो अद्भुत ढंग से "रूढ़ि तथा प्रगतिशीलता" का संगम थे...उनमें धर्म और शास्त्रीयता को ले कर जितना आग्रह था उतना ही सामाजिक-ढकोसलों से विद्रोह और उनका यह गुण मुझमें किसी संस्कार की भाँति स्थापित हो गया..! मैं मानता हूँ कि माँ-बाप बनना इस संसार मे सरलतम क्रिया है... किन्तु उसके उलट "अभिभावक" बनना अत्यंत दुरूह.... मैं भाग्यशाली हूँ कि मेरे पिता और माता दोनों में ही अभिवावक होने का ऐसा गुण विधमान था कि यदि इसके निम्मित कोई प्रतियोगिता होती तो उन्हें विश्व के श्रेष्ठतम अभिभावकों में स्थान मिलता... और यह मैं किसी भावावेश में नही कह रहा अपितु दर्शन और तथ्य से कह रहा हूँ... मेरे पिता ने सबसे पहले तो मूझे "ईश्वर" के रूप के प्रति प्रेम दिया और साथ मे उससे मैत्री का साहस... वह कहते थे जो भी अच्छा-बुरा है वो सब अपने भगवान् से कहो... परिणामतः मेरे सारे पुण्य-पाप मैं देवताओं को बताता रहा... और देवता मेरे पाप मुक्त होने का बल देते रहे... हनुमान जी का परम भक्त तो मैं जन्म से ही था कदाचित किन्तु उसको निखार तो पापा ने ही... पापा ने मुझे जीत-हार से ऊपर उठ कर "खेलने" की समझ दी... दुःख में ईश्वरीय शरण और साहस की प्रेरणा दी... धन से अधिक मन कमाने की चाह दी... निरंतर सीखने की ललक... गर्व से बच कर रहने और सुंदरता के समक्ष झुक जाने की भावना को बल दिया... वह कभी मुझे कुछ बनने को नही कहते बस निखरने को कहते... उन्हें पता था कि कोई कुछ बन नही सकता बस जो है उसे निखार ले तो संतुष्ट नही तो असंतोष में मरता है...मैं याद कर सकता हूँ एक बार जब मैं कोई चौदह-पंद्रह वर्ष् का था उस समय मैं बाज़ार से एक पोस्टर ले आया जिसमें एक दैवीय-नारी नग्नावस्था में(केवल एक अजगर धारण किये) सिंहरथ पर आरूढ़... क्रोधित मुद्रा में अवस्थित थी... पोस्टर बेचने वाले ने बताया ये यूनानी-देवी "डायना" का कल्पित चित्र है... मैं उसे ले कर अपने घर आ गया और घर की बैठक में दीवार पर चिपका दिया... पापा दुकान से लौट कर आए तो उन्होंने मुझसे पूछा यह कैसा चित्र है... तब मैंने दुकानदार वाली बात बोल दी... बात आई-गई हुई... कुछ समय बाद एक दिन घर में पापा के मित्र आए हुए थे... वो बैठक में बैठे थे... मैं वहीं था क्यों कि पापा उस समय मंदिर में पूजा कर रहे थे... थोड़ी देर बाद वो हाथ मे अगरबत्ती लिए बाहर आए और बैठक के सब देवचित्रों(उस समय घरों में देवताओं के चित्र मढ़वा कर लगाने का चलन बहुत था) को अगरबत्ती दिखाते हुए "डायना" तक भी आए और बड़ी सहजता से अगरबत्ती दिखाते आगे बढ़ गए... पापा के मित्र यह देख अचरज में थे कि पण्डित हरिहरनाथ शास्त्री एक अंग्रेज नग्न स्त्री को अगरबत्ती दिखा रहे... उनको यह जँचा नहीं... यह देख मुझे भी थोड़ा अटपटा लग रहा था कि इतने में उन्होंने पापा से पूछ ही लिया - "शास्त्री जी! ये आप किसकी पूजा कर रहे?"... इस पर पापा ने सहजता से कहा-" ये अंग्रजों की दुर्गा जी हैं!"... इस पर वो साहब और चौकें और बोले - "क्या बात करते हैं! ऐसी दुर्गा जी होती हैं क्या?"... इस पर पापा ने बड़े प्यार से मुस्कान के साथ कहा - "जैसे अंग्रेज वैसे इनके भगवान्.. इसमे क्या बुरी बात है!".... इस उत्तर ने मेरा मन आनन्द से भर दिया और मैंने यह भी जान लिया कि लोग क्या सोचते हैं इसके पहले यह महत्वपूर्ण है कि तुम क्या समझते हो...  इस प्रकार पापा ने मुझे नृत्यमय जीवन का पाठ जी कर पढ़ाया... वो सभी झंझावात हँसते-गाते सह जाते थे(केवल हस्पताल से डरते थे) ...मैं बचपन में न जाने क्यों "अर्थी" देखते ही रोने लगता था...एक-दो बार ऐसा होने के बाद पापा ने मुझे मृत्यु भय से दूर करने के लिए अर्थी दिखना ही बन्द कराने की कोशिश शुरू कर दी...कई बार रास्ता बदल देते तो कई बार मुझे बातों में उलझा लेते जब कोई अर्थी आसपास होती...मतलब यह कि मैंने जीवन मे कभी किसी स्वजन की अर्थी देखी ही नहीं... पापा की पसन्द बड़ी "क्लास" थी... उनको क्रिकेट में कपिल देव और मार्टिना नवरातिलोवा... सिनेमा में अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना और मीना कुमारी... गायन में लता मंगेशकर और मुहम्मद रफ़ी... लोक गायन में चाँद पुतली और शारदा सिन्हा... भोजन में चावल-दाल मौसमी सब्ज़ी... और अवकाश में तीर्थयात्रा अत्यंत प्रिय थी... और संयोग से यह सब मुझे भी अत्यंत प्रिय है... मेरे पिता राजनीति पर धर्म का प्रभाव तो चाहते थे किन्तु धर्म पर राजनीति की छाप एकदम नहीं चाहते थे... उनको साहित्य से लगाव था... "चित्रलेखा" उनकी प्रिय पुस्तको में एक थी... तुलसीदास की रामचरित मानस उनके जीवन का आधार... और सबसे बढ़कर भगवान् भोले नाथ की भक्ति..! 

इस असार संसार में सार है तो केवल शिव!...एक ओर यह नव-सम्वत्सर के आरंभ में पड़ा चैत्र-नवरात्र है... आज देवी कात्यायनी का दिन अर्थात षष्ठी(छठ) है जो सूर्य की तिथि(यह सूर्य षष्ठी भी थी) भी मानी जाती है...उस पर रविवार है... सूर्य उत्तरायण हुए अपना प्रकाश मिट्टी पर बरसा रहे हैं...चंद्रमा अपनी श्रेष्ठ राशि मिथुन(जो पापा की जन्मराशि भी है) में है... हर ओर मन्त्र-हवन-स्त्रोत की सुंगध है... दूसरी ओर इस्लाम मे पवित्रतम-रमज़ान का महीना चल रहा  है... सब तरफ रोज़े-नमाज़ की खुशबू है... रविवार होने से गिरजों में भी प्रार्थना हो रही है... सब ओर ईश्वर ही ईश्वर है... गाड़ी में पापा ने मम्मी को कुछ पल देखा... फिर आँख बंद कर लिए... सांस तेज चलते चलते धीमी हो रही है... मम्मी उन्हें देख रही हैं... घबराई-नाचार... मुख पर गायत्री मंत्र... वही गायत्री मन्त्र जो पापा ने विवाह के पश्चात मम्मी को उपहार में कानों में पहना दिया था... तबसे ऐसा कोई दिन नही होगा जब मम्मी ने यह जाप नहीं किया... बचपन मे जब कभी हम लोगों को सरदर्द-बुख़ार हो जाए तो मम्मी गायत्री जप कर जल पिला देतीं और हम लोग ठीक हो जाते... यह क्रिया मैंने भी अनेक बार दोहराई... वैदिक दृष्टि से गायत्री मंत्र वस्तुतः "सूर्योपासना" का मंत्र है... यह जीवन का मन्त्र है... प्राण के आवागमन का मन्त्र है... मम्मी मन्त्र दोहरा रही हैं... भाई गाड़ी भगा रहा है की जल्दी से हसपताल पहुँचे साथ ही मुझे फोन कर के सूचना भी दे रहा है... गाड़ी बस उस स्थान पर पहुंचने को है जहाँ पापा का विद्यालय "सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय" है... जिसमे वाग्देवी और गायत्री के पवित्र विग्रह विद्यमान हैं... की तभी मम्मी भाई से कहती हैं -- "पापा ने मुँह खोल दिया"... प्राण मुँह से निकले यह पुण्यात्मा होने का प्रमाण है गरुणपुराण के अनुसार... पापा की शिव-सेवा आज काम आई... प्राण उनके मुख से उठ कर सूर्य किरण पर जा विराजे... पापा के मुख पर एक शांत-स्मित भाव है... आँखे बंद... होठ अधखुले... हाथ पेट पर ... सब शांत... भाई स्तब्ध... यही दृश्य है जो मैं हस्पताल के बाहर कुछ पल को देखता हूँ... (मैं जबतक पहुंचा था तब तक पापा संसार से जा चुके थे... मैं उन्हें अंतिम सांस भरते न देख सका... या शायद वह मुझे जाते जाते भी मृत्यु की भयंकरता से बचाना चाहते थे) इतने में मम्मी की बिलखती आवाज़ आती है - "पापा चले गए! पापा चले गए!"... उफ़्फ़! दृश्य कितनी बार कितने चलचित्र और नाटकों में देखा था मैंने... कई बार इसी हस्पताल के आगे खड़े रह कर भी देखा था मैंने (जब पापा बीमार होते थे तो यहीं भर्ती होते थे)... किन्तु आज पहली बार मैं इस दृश्य का हिस्सा था... सच कितना बुरा होता है अपने ही बाप की मौत में शामिल होना... अपनी ही माँ को बिलखते देखना... और फिर कुछ न कर पाना... फोन पर घण्टियाँ बज रही हैं मित्रों की... मैंने बस पहला कॉल उठाया था... लखनऊ से श्री शिवपाल यादव जी ने कॉल किया और ढांढस के वाक्य दोहराए... मैं उस पर भी रो पड़ा... अब मैंने फोन भी हितेश को दे दिया... क्यों कि हर कॉल आपसे यही पूछता है -"क्या हुआ?"... और आप हर बार यही नहीं दोहरा सकते कि -"मेरे सर का आकाश उड़ गया!".... कोरोना-काल है मैं नहीं चाहता हूं कि कोई आए... फिर भी कुछ लोगों की मेरी आँखों को तलाश है... कोई आना चाहता हैं पर बहुत दूर है... कुछ पास ही है पर आना नहीं चाहते... हां! यह दौर ऐसा ही है जब लोग दुःख में भी साथ नही हो पाते(शिकायत नहीं तकलीफ़ है)... फिर भी कृतज्ञ हूँ रामेश्वर दयाल जी, नोमान साहब, इमरान साहब,आरिफ, आमिर, साक़िब के पिता कमाल साहब, मुमताज़ भारत, विशाल भारत, सुमित, किशन, राजकुमार और दत्तराज और ऐसे ही लोगो का जो इस समय भी साथ हैं... भगवान् इन्हें सुखी रखे... न जाने क्यों मेरे मन से यह दुआ बार बार निकल रही है... इस क्षण पता लगता है संसार मे सब असार(व्यर्थ) है केवल कल्याण भाव ही है जिसका कोई सार है..!

करबि पायँ परि बिनय बहोरी। 
तात करिअ जनि चिंता मोरी॥(मानस).. पापा जा चुके हैं.... बड़ाभाई,हितेश और साक़िब उन्हें गाड़ी से निकाल कर अंदर "ड्राइंग रूम" में लिटा चुके हैं... मुझमें साहस नहीं कि घर के अंदर जाऊं और अपने पिता को निष्प्राण देखूँ... हाय! विधाता! इतना निष्ठुर काल देखने मैं क्यों रहा!... जिसने गोद खिलाया... हर दुःख में माथा सहलाया... हर सुख की व्यवस्था की... आज वो चला गया है... मैं यह क्यों देख रहा हूँ... ड्योढ़ी के बाहर खड़ा मैं चुपचाप उनके गोरे-गुलाबी पाँव देखता और उन्हें बुलाता जा रहा हूँ "पापा-पापा-पापा"... आवाज़ मेरे हलक से निकलती और मेरे कान तक जाती... पापा सुनते ही नहीं... मैं सोच रहा हूँ शायद उनके पाँव अभी अभी हिलेगे... क्यों कि बहुत बार ऐसा हुआ है संसार में... भीतर कमरे में मम्मी और साक़िब चिल्ला चिल्ला कर रो रहे हैं... एक एक कर के मेरी बहनें आ रही हैं... रोना और चुप कराना एक साथ चल रहा है... मेरी छोटी बहन बंटी(विभा) भी मेरी तरह ही कमरे में नही जा रही है... बाहर ही रो रही है... उससे छोटी बहने अधिक समझदार हो चुकी हैं... वो माहौल को संभाल रही हैं... भाई भी शांत है कर्मकांड की तैयारी में जुटा है... बड़े बेटे होने का अभिशाप यह भी है कि तुम अपने ही पिता के शव पर बिलख कर गिर नहीं सकते... तुमको सब संभालना है... किन्तु मैं इन व्यर्थ-उत्तरदायित्वों से सर्वदा मुक्त हूँ... मैं तो रो भी सकता हूँ बिलख भी... और मैं बिलख रहा हूँ... पापा न बोल रहे... न डोल रहे... इस समय मुझे रह रह कर एक निर्गुण याद आ रहा है-- "एकर का भरोषा, चोला माटी के राम"-- मुझे याद है पापा प्रायः बचपन में कहते थे-- "बेटे/बेटियों की शादी-वादी करके... और अपनी शादी की पचासवीं सालगिरह मना कर... हम जंगल चले जाएंगे... तुम लोग मम्मी का ध्यान रखना...!"... अभी 2017 में हमने बड़ी धूमधाम से पापा की शादी की पचासवीं सालगिरह मनाई थी... उनके मन-मुताबिक पापा-मम्मी की दुबारा शादी भी करवाई गई... यूँ तो उसके कोई दो-बरस पहले पापा को हृदयाघात हो चुका था... और शरीर कुछ निर्बल भी हो गया था... किन्तु उस दिन उनकी आभा और प्रसन्नता देखने योग्य थी... और आज मम्मी रो-रो कर साक़िब से कह रही हैं-- "तुम्हारे हीरो चले गए!"... कितना बुरा है इतने लंबे संग का टूट जाना(और जब वो अत्यंत प्रेम में डूबा हो) यह अंदाज़ भी कोई नही लगा सकता... यह पीड़ा नितांत व्यक्तिगत होती है... मैं अपनी माँ का दुःख समझ भी नहीं सकता हूँ... केवल उनको बिलबिलाते देख सकता हूँ... जैसे कोई प्यासा किसी दूसरे प्यासे को मरुथल में तड़पते देखे और फिर अपनी ही प्यास की आकुलता में डूब जाए...! 

अपना कोई भी नहीं, अपने हैं तो राम!... आकाश में अचानक बादल आ गए हैं... तेज हवा चल रही है... राजकुमार भइया मुझसे आ कर कहते हैं-- "अब देर हो रही है... मिट्टी बाहर निकाल लिया जाए?"... मिट्टी! मेरे पापा आज मिट्टी हो गए हैं... छि! कितना गंदा है ये शब्द एक देह के लिए... वो मेरे पापा हैं... वो अद्भुत कर्मकांडी हैं... वो विद्वान ज्योतिषी हैं... वो अनूठे वक्ता हैं... वो समाजसेवी है... वो प्रेमी है... वो भक्त हैं... वो मिट्टी नहीं हैं... किसी का देहांत उसे मिट्टी नहीं करता..!... यह सब तर्क मेरे मन मे उठ रहे हैं... पर सामने सज रही हैं बाँस की वो सीढ़ी जिसे देखना मुझे बचपन से नापसंद था... हाय रे भाग्य! जिसने जीवन मे कभी किसी स्वजन की अर्थी नहीं देखी उसे सीधे अपने ही पिता की अर्थी देखनी होगी... अरे! मैं अब तक क्यों रह गया जगत में!... लोगों को क्या लोग् तो केवल व्यवहार निभा रहे... क्षति तो केवल मेरी हुई है... मम्मी की हुई है... भाई बहनों की हुई है... शेष तो सब सम्बन्धो के बोझ में खड़े हैं... मैं रह रह कर चीत्कार कर रहा हूँ "पापा" "पापा" "मेरे पापा" पर कौन सुने... इमरान साहब बार बार समझा रहे... दयाल जी गले लगा के सांत्वना दे रहे... हितेश पानी पिला रहा... मैं सबको साधुवाद कर रहा... पर स्वयम केवल उस सम्पत्ति के लूटने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ जो बस अब गई तब गई... मैं पूरा रो भी नहीं सका कि पापा को उठा कर अर्थी पर लिटा दिया गया... रामनामी उढा कर उन्हें सीढ़ी पर रस्सी से कसा जाने लगा... फूल माला सजाया जाने लगा... इतने में मम्मी रोते हुए आ गईं... हाथ में वही "सिंधौरा" है जो विवाह के समय पापा ने दिया था... आज तो सिंदूर सो गया था... मम्मी ने रूठ कर कहा - "दे दो उनको! जब चले गए तो साथ ही ले जाएं!इतने सालों से एक मिनट को नहीं छोड़े और आज एक मिनट में छोड़ कर चले गए..!"(और फूट कर रोने लगीं)... पीली रामनामी पर लाल सिंधौरा ऐसा लग रहा जैसे विष्णु की गोद मे लक्ष्मी हों... रस्सी से उसे भी पापा के साथ बांन्ध दिया गया है... और माला से पूरा शरीर ढक दिया गया है... एक एक करके सब पापा को माला पहना रहे चरण स्पर्श कर रहे... हितेश ने मुझे आ कर कहा-- "चलिए! माला पहना दीजिये!"... मैंने ना कहा... तो बहनों ने कहा-- "नहीं! ऐसा मत कहो! ज़रूरी है!"...मैंने काँपते हाथों से एक माला उनके गले में डाल दी... याद नहीं उनके जीते जी मैंने कब उन्हें माला पहनाई थी... उसके पश्चात सबने ज़िद कर के उनके ललाट पर अबीर लगाने को कहा... ओह! कितने सुन्दर और तेजस्वी हैं वो इस समय भी... जबकि अब वो इस देह में नहीं हैं... किन्तु जैसे डूबे हुए सूर्य की अरुणिमा... रात्रि चढ़ने तक क्षितिज को प्रदीप्त रखती है वैसे ही पुण्यात्मा प्राण त्यागने के पश्चात भी अपनी दिव्य छाया देह पर छोड़ जाते हैं..! आकाश में बादल हैं... हल्के से छींटे पड़ चुके थे... भगवान् देह को विदा करने आज्ञा दे चुके हैं... भाई के साथ मिल कर लोगों ने अर्थी उठा लिया... मुझे सब मिल कर मना रहे हैं कि मैं इस अर्थी को कंधा दूँ ... पर मेरा कलेजा फट रहा है कि जिसके कंधे पर इतनी सवारी की है बचपन में उसे अपने कंधों पर उठा कर अपने से हमेशा के लिए दूर कर दूं... बड़ी कठिनाई से मैंने  दो-क़दम का कंधा दे दिया... परन्तु उसके पश्चात मेरा आगे बढ़ना असम्भव है... मैं कत्तई श्मशान घाट नहीं जाने वाला हूँ... मैं पापा को अपने ही सामने मनुष्य से अग्नि और अग्नि भष्म होते नहीं देख सकता हूँ... मैँ पापा को हमेशा अपनी आँखों मे वैसे ही बसाए रखना चाहता हूं जैसे वो अबतक थे... मैं पापा को जाते हुए देख रहा हूँ... बमभोले, हितेश, साक़िब ,कुछ मित्र और सम्बन्धी पापा की अर्थी ले कर जा रहे हैं... मैँ अपनी जगह पर खड़ा उनको हाथ हिला कर विदा कर रहा हूँ-- "पापा टाटा-पापा टाटा"-- वैसे ही जैसे मैं बचपन में अपने घर के बरामदे से करता रहता था... जब तक पापा आँखों से ओझल न हो जाएं... आज भी मैंने तब तक उन्हें टाटा किया... बस एक अंतर आया... तब वो जाते जाते एक बार जरूर मुड़ते थे टाटा करते हुए... पर अबकी बार वो बिना मुड़े चलते गए... चलते गए... अपनी अंतिम यात्रा पर... या क्या पता वो मुड़ें हों... देखा हो... और लौटे भी हों... यहीं कहीं हो... बस मुझे नहीं दिख रहे... जैसे नहीं दिखते हैं भगवान्... होते तो हैं हमेशा हमारे आसपास...!!"


७ मई २०२१
ओमा The अक्© 

(मेरे पिता पण्डित हरिहरनाथ शास्त्री की मृत्यु पर श्रद्धांजलि में लिखा स्मृति पत्र💐)

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