एकला चलो रे... (बुद्ध और सिकंदर) - ओमा द अक्
एकला चलो रे... (बुद्ध और सिकंदर ) ------------- "उत्तर दिशा के क्षितिज पर गोधूलि की रक्तिम आभा शनै-शनै धूमिल हो रही थी... काले- सँवलाये-आकाश में अटल-ध्रुव प्रकट होने को था... उस अटल-यथार्थ का उद्घोष करने... जो संसार मे आने वाले प्रत्येक जीव के समक्ष एक न एक दिन आता है-- "मरण"-- सम्प्रति! इसी अटल-ध्रुव से शीश-जोड़े तथागत लेटे हुए थे... सांसारिक-लोगों के लिए यूँ लेटना अशुभ है पर सन्यासी को तो यूँही मंगल-बोध होता है... निकट में मुड़-मुंडाए-भिक्खुओं का समूह निःशब्द देख रहा था... उस गौतम के परिनिर्वाण को जो संसार के विज्ञान का महानतम-उद्घोषक है... उस बुद्ध को जिसके पदचिह्न दुःख से मुक्ति की ओर लिए जाते हैं... आज वह स्वयम जा रहा है... किन्तु कैसा शांत और संयमित.. मानो कोई मनचाही यात्रा पर निकल रहा हो... अहोभाग्य! क्या मृत्यु इतनी सरल और सुंदर भी होती है...? यूनान की एक छोटी सी सल्तनत "मकदूनिया" में आज शाम बड़ी रंगीली थी... चाँद अपने पूरे शबाब पर था... जो अपनी चाँदनी के जाल फेंक कर आसमान के तमाम-सितारों को गुमशुदा किये जा रहा था... बस दूर एक सितारा उत