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और कुमार सम्भव अधूरा ही रह गया...

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"और कुमार सम्भव अधूरा ही रह गया...  कालिदास एक अद्भुत कवि थे...वाल्मीकि के पश्चात संस्कृत के सबसे   सुन्दर रचनाकार तथा विश्व के महानतम-साहित्यकार... किसी भी "रूमी"..."फिरदौसी"..."शेक्सपियर" और "किट्स" से बड़े क्षितिज को निहारने वाले...कभी "मेघदूत" के अनूठे प्रेमपत्रों में लीन...कभी "अभिज्ञान शाकुन्तलम" में वासना और वेदना को उकेरने में तल्लीन...कभी "रघुवंश" की महागाथा में राष्ट्रहित और धर्म की टोह लेते हुए कालिदास ने जब भी लेखनी थामी तो साक्षात वाग्देवी भारती के निष्कलंक-राजहंस बन गए...और व्योम की अतल गहराइयों से शब्दों के ऐसे गजमुक्त चुन-चुन लाए जो अक्षर-अमर हो गए...किन्तु इस बार वो चूक गए...कृतिका-नक्षत्र के तारा-समूह में किसी पालने का आभास होता है...डोरी से बंधा..नन्हा सा पालना...अन्नत-आकाश में झूलते इस पालने में...किसी अमावस्या की अर्धरात्रि को कालिदास भगवान् कार्तिकेय का दर्शन करते हैं...और लेखनी थाम उनके स्वरूप के वर्णन में जुट जाते हैं...मयूरासन पर विराजे...शिव के समाधि-भंग के फलस्वरूप प्रकटे स्...

कविता-आलोक

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कविता-आलोक ------------ "गँवई मिट्टी का खिलौना... जब कभी क़स्बों के हाट-बाज़ार तक पहुँचता है... तब उसे पहली बार यह पता लगता है कि 'वो बिक भी सकता है'... वास्तव में! कविता बड़ी व्यक्तिगत होती है... इसलिये बड़ी छिपा के रखी जाती है... यही कारण है कि ग्राम्य-संस्कृति में जन्मी ऋचाओं को सहस्राब्दियों छिपाए रखा गया किसी भी "हाट-बाजार" से... बस किसी किसी 'द्विज' के कानों में कोई पुरनिया कह देता था.. ताकि  मिट्टी पर उगा आकाश सुरक्षित रह सके... हाँ! हर वास्तविक कविता मिट्टी पर उगा आकाश है... जैसे उगता है आकाश मिट्टी से अंकुरित हो कर अन्न के रूप में... अन्न वो कविताएं हैं जिसे किसान लिखते हैं... और भरते हैं उन विचारकों-कवियों के पेट जो अपनी रचनाएं करते हुए कभी भी याद नही करते कि उनके काग़ज़ पर जो विचार या काव्य उग रहे हैं वास्तव में उनकी जड़ें उनके पेट में हैं... इस प्रकार प्रत्येक कविता किसी न किसी खेत... किसी न किसी गाँव की कृतज्ञ होती है... परन्तु नही होता है हर कवि कृतज्ञ अपने पेट मे पड़े अन्न के रचनाकार किसान का... उपजाऊ खेत का... हाट-बाज़ार के पीछे छूट गए अधपके गाँव क...